तब उन्होंने अपनी सारी इन्द्रियों को मन में, मन को जीवन में, जीवन को प्राण में, अपने पूर्ण अस्तित्व को पाँच तत्त्वों के शरीर में तथा अपने शरीर को मृत्यु में समाहित कर दिया। तत्पश्चात् शुद्ध आत्मा के रूप में वे देहात्म-बुद्धि से मुक्त हो गये।
तात्पर्य
महाराज युधिष्ठिर भी अपने भाई अर्जुन की तरह एकाग्रचित्त होकर क्रमश: सारे भौतिक बन्धन से मुक्त हो गये। सर्वप्रथम उन्होंने इन्द्रियों के समस्त कर्मों को एकाग्र किया और उन्हें मन में समाहित कर दिया, अथवा दूसरे शब्दों में, उन्होंने मन को भगवान् की दिव्य सेवा की ओर मोड़ा। उन्होंने प्रार्थना की कि चूँकि सारे भौतिक कार्यकलाप मन द्वारा इन्द्रियों के कर्मों तथा फलों के रूप में सम्पन्न होते हैं और चूँकि वे भगवद्-धाम जा रहे थे, अतएव मन को अपने भौतिक कार्यकलापों को समेट लेना चाहिए और भगवान् की दिव्य सेवा की ओर मुडऩा चाहिए। तब भौतिक कार्यकलापों की आवश्यकता नहीं रह गयी थी। वस्तुत: मन के कार्यकलापों को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि वे सनातन आत्मा के प्रतिबिम्ब हैं, किन्तु कार्यकलापों के गुण को पदार्थ से भगवान् की दिव्य सेवा में बदला जा सकता है। जब मन के मैल को प्राण वायु द्वारा स्वच्छ कर लिया जाता है, तो उसका भौतिक रंग बदल जाता है और वह जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जाता है और शुद्ध आध्यात्मिक जीवन में स्थित हो जाता है। भौतिक देह के क्षणिक रुप से धारण होने पर सब कुछ प्रकट होता है और यह शरीर मृत्यु के समय की मन की उपज है, अतएव यदि मन को भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति द्वारा शुद्ध कर लिया जाता है और उसे निरन्तर भगवान् के चरणकमलों की सेवा में प्रवृत्त रखा जाता है, तो मृत्यु के बाद मन द्वारा अन्य भौतिक शरीर को उत्पन्न कर पाने की सम्भावना ही नहीं रहेगी। तब यह भौतिक कल्मष में डूबे रहने से मुक्त हो जायेगा और शुद्ध आत्मा भगवद्-धाम को लौट जायेगा।
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