चीर-वासा:—चिथड़े ग्रहण किये; निराहार:—ठोस भोजन करना त्याग दिया; बद्ध-वाक्—बोलना बन्द कर दिया; मुक्त- मूर्धज:—बाल खोल दिए; दर्शयन्—दिखाने लगे; आत्मन:—अपने; रूपम्—शारीरिक स्वरूप को; जड—निष्क्रिय; उन्मत्त— पागल; पिशाच-वत्—उजड्ड की तरह; अनवेक्षमाण:—प्रतीक्षा किये बिना; निरगात्—स्थित था; अशृण्वन्—बिना सुने; बधिर:—बहरा व्यक्ति; यथा—जिस तरह ।.
अनुवाद
तत्पश्चात् महाराज युधिष्ठिर ने फटे हुए वस्त्र पहन लिये, ठोस आहार लेना बन्द कर दिया, वे जान कर गूँगे बन गये और बालों को खोल दिया। इन सबके मिल-जुले रुप में, वे एक उजड्ड या वृत्तिविहीन पागल की तरह दिखने लगे। वे किसी वस्तु के लिए अपने भाइयों पर आश्रित नहीं रहे। वे बहरे मनुष्य की तरह कुछ भी न सुनने लगे।
तात्पर्य
इस प्रकार समस्त बाह्य झंझटों से छूटने पर, उन्हें राजसी जीवन या परिवार-प्रतिष्ठा से कुछ लेना-देना नहीं रहा और वे एक तरह से वे निष्क्रिय, पागल, उजड्ड की तरह बन गये और भौतिक मामलों के विषय में कुछ भी बोलना बन्द कर दिया। अब वे अपने उन भाइयों पर आश्रित नहीं रहे जो निरन्तर उनकी सहायता करते थे। सभी प्रकार की इस पूर्ण स्वतंत्रता को निर्भीकता की शुद्ध अवस्था (निर्भयपद) कहते हैं।
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