श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 44
 
 
श्लोक  1.15.44 
उदीचीं प्रविवेशाशां गतपूर्वां महात्मभि: ।
हृदि ब्रह्म परं ध्यायन्नावर्तेत यतो गत: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
उदीचीम्—उत्तरी दिशा; प्रविवेश-आशाम्—वहाँ प्रवेश करने की इच्छा करनेवाले; गत-पूर्वाम्—अपने पूर्वजों द्वारा स्वीकृत पथ; महा-आत्मभि:—विशाल हृदय के कारण; हृदि—हृदय के भीतर; ब्रह्म—परमेश्वर; परम्—परम; ध्यायन्—निरन्तर ध्यान करते हुए; न आवर्तेत—अपने दिन बिताये; यत:—जहाँ कहीं भी; गत:—गये ।.
 
अनुवाद
 
 तब उन्होंने उत्तर दिशा की ओर अपने पूर्वजों तथा महापुरुषों द्वारा स्वीकृत पथ पर चलते हुए प्रस्थान किया, जिससे वे परमेश्वर के विचार में पूर्ण रूप से लग सकें। वे जहाँ कहीं भी गये, इसी तरह रहे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक से यह विदित होता है कि महाराज युधिष्ठिर ने अपने पूर्वजों तथा भगवान् के महान् भक्तों के चरण-चिह्नों का अनुगमन किया। हम पहले कई बार यह बता चुके हैं कि जिस रूप में वर्णाश्रम-धर्म विश्व के निवासियों द्वारा और विशेष रूप से आर्यावर्त के निवासियों द्वारा पालित होता है, उसमें जीवन की एक अवस्था में, घर-बार के सारे सम्बन्धों को छिन्न करने की महत्ता पर बल दिया जाता है। इसी दृष्टि से प्रशिक्षण तथा शिक्षा दी जाती थी और इस तरह महाराज युधिष्ठिर जैसे सम्मानित व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार करने तथा भगवद्धाम वापस लौटने के लिए सारे पारिवारिक सम्बन्ध छोडऩे पड़ते थे। गृहस्थ जीवन को न कोई राजा, न कोई सम्मानित व्यक्ति, अन्त तक चला सकता है, क्योंकि इसे मानव जीवन की सिद्धि के प्रतिकूल तथा उसकी आत्म-हत्या जैसा माना जाता है। अतएव सारी पारिवारिक झंझटों से मुक्त होने एवं भगवान् कृष्ण की भक्तिमय सेवा में शत-प्रतिशत लगने की हमेशा संस्तुति की जाती है, क्योंकि यह प्रामाणिक पथ है। भगवान् भगवद्गीता (१८.६२) में शिक्षा देते हैं कि मनुष्य को, कम से कम अपनी अन्तिम अवस्था में, भगवद्भक्त बनना चाहिए। भगवान् के प्रति एकनिष्ठ आत्मा को अपने हित के लिए महाराज युधिष्ठिर की भाँति भगवान् के उपदेश का पालन करना चाहिए।

ब्रह्म परम् शब्द भगवान् श्रीकृष्ण के सूचक हैं। इसकी पुष्टि अर्जुन द्वारा भगवद्गीता (१०.१३) में असित, देवल, नारद तथा व्यास जैसे महापुरुषों के सन्दर्भ में की गई है। इस प्रकार उत्तरापथ के लिए गृहत्याग करते हुए महाराज युधिष्ठिर अपने अन्त:करण में निरन्तर श्रीकृष्ण का स्मरण करते रहे और अपने पूर्वजों तथा सभी परम भक्तों के चरण-चिह्नों पर चलते रहे।

 
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