ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वात्यन्तिकमात्मन: ।
मनसा धारयामासुर्वैकुण्ठचरणाम्बुजम् ॥ ४६ ॥
शब्दार्थ
ते—वे सब; साधु-कृत—साधु के अनुरूप किया गया; सर्व-अर्था:—प्रत्येक योग्य वस्तु से युक्त; ज्ञात्वा—जानकर; आत्यन्तिकम्—चरम; आत्मन:—जीव का; मनसा—मन के भीतर; धारयाम् आसु:—पालन किया; वैकुण्ठ—वैकुण्ठ के स्वामी; चरण-अम्बुजम्—चरणकमल का ।.
अनुवाद
उन्होंने धर्म के सारे नियम सम्पन्न कर लिये थे। अतएव उनका यह निश्चय ठीक ही था कि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल ही सबों के चरम लक्ष्य हैं। अतएव उन्होंने बिना व्यवधान के उनके चरणों का ध्यान किया।
तात्पर्य
भगवद्गीता (७.२८) में भगवान् कहते हैं कि जिन्होंने पूर्वजन्म में सत्कर्म किये हैं और जो समस्त पापकर्मों के फलों से मुक्त हो चुके हैं, वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों में अपने को एकाग्र कर सकते हैं। पाण्डवों ने न केवल इस जन्म में, अपितु अपने पूर्वजन्मों में भी सदैव पुण्य कर्म किये थे। और इस प्रकार वे पापकर्मों के फलों से हमेशा मुक्त थे। अत: यह उचित ही है कि उन्होंने अपना ध्यान भगवान् के चरणकमलों पर केन्द्रित किया। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के नियमों को वे ही अपनाते हैं, जो पापकर्म के फलों से मुक्त नहीं हुए हैं। ऐसे लोग उपुर्यक्त चारों नियमों के कल्मष से प्रभावित होने के कारण वैकुण्ठलोक के स्वामी भगवान् के चरणकमलों को तुरन्त ही अपना नहीं पाते। वैकुण्ठ विश्व भौतिक आकाश से बहुत दूर स्थित है। भौतिक आकाश दुर्गादेवी या भगवान् की भौतिक शक्ति के अधीन है, किन्तु वैकुण्ठ विश्व की व्यवस्था भगवान् की निजी शक्ति द्वारा होती है।
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