तीर्थाटन के लिए गये हुए विदुर ने प्रभास में अपना शरीर त्याग किया। चूँकि वे भगवान् कृष्ण के विचार में मग्न रहते थे, अतएव उनका स्वागत पितृलोक के निवासियों ने किया, जहाँ वे अपने मूल पद पर लौट गये।
तात्पर्य
पाण्डवों तथा विदुर में अन्तर इतना ही है कि पाण्डव भगवान् के नित्य संगी हैं, लेकिन विदुर पितृलोक के प्रशासक देवताओं में से एक हैं और यमराज के रूप में जाने जाते हैं। लोग यमराज से भयभीत रहते हैं, क्योंकि वे ही इस जगत के दुष्टों को दण्ड देते हैं, किन्तु जो भगवान् के भक्त हैं, उन्हें उनसे डरने की कोई बात नहीं है। वे भक्तों के सुहृद मित्र हैं, किन्तु अभक्तों के लिए साक्षात् भय हैं। जैसाकि हम पहले बता चुके हैं, यमराज को मण्डूक मुनि ने शाप दिया था कि वे शूद्र बन जाये, अतएव विदुर यमराज के अवतार थे। उन्होंने भगवान् के सनातन सेवक के रूप में अत्यन्त मनोयोग से भक्ति का प्रदर्शन किया और पुण्यात्मा का जीवन बिताया, यहाँ तक कि धृतराष्ट्र जैसे भौतिकतावादी मनुष्य को भी उनके उपदेश से मोक्ष प्राप्त हो सका। अतएव वे भक्ति के पुण्यकर्मों द्वारा भगवान् के चरणकमलों का स्मरण सदैव कर सकते थे और इस तरह उनके शूद्र-जन्मा जीवन के सारे कल्मष धुल गये। अन्त में पितृलोक के निवासियों ने उनका स्वागत किया और पुन: उन्हें अपना मूल पद मिल गया। देवता भी भगवान् के पार्षद हैं, किन्तु उन्हें भगवान् का व्यक्तिगत संग प्राप्त नहीं हो पाता, जबकि भगवान् के प्रत्यक्ष पार्षदों को उनका निरन्तर संग प्राप्त होता रहता है। भगवान् तथा उनके निजी पार्षद निरन्तर विभिन्न ब्रह्माण्डों में अवतरित होते रहते हैं। भगवान् सभी पार्षदों का स्मरण रखते हैं, किन्तु भगवान् के सूक्ष्म अंश होने के कारण वे उन्हें भूल जाते हैं। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इस तरह भूलना सहज है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (४.५) में हुई है।
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