अर्जुन उवाच
वञ्चितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा ।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
अर्जुन: उवाच—अर्जुन ने कहा; वञ्चित:—त्यक्त; अहम्—मैं; महा-राज—हे राजा; हरिणा—भगवान् द्वारा; बन्धु-रूपिणा— घनिष्ठ मित्र रूपी; येन—जिससे; मे—मेरा; अपहृतम्—छीना गया है; तेज:—पराक्रम; देव—देवता; विस्मापनम्— आश्चर्यजनक; महत्—अत्यधिक प्रबल ।.
अनुवाद
अर्जुन ने कहा : हे राजन्, मुझे अपना घनिष्ठ मित्र माननेवाले भगवान् हरि ने मुझे अकेला छोड़ दिया है। इस तरह मेरा प्रबल पराक्रम, जो देवताओं तक को चकित करनेवाला था, अब मुझमें नहीं रह गया है।
तात्पर्य
भगवद्गीता (१०.४१) में भगवान् कहते हैं, “कोई चाहे कितना ही शक्तिशाली तथा सम्पत्ति, बल, सौन्दर्य, ज्ञान तथा भौतिक मामलों में ऐश्वर्यवान क्यों न हो, उसे मेरी पूर्ण शक्ति का एक तुच्छ अंश-स्वरूप समझो।” अतएव कोई भी स्वतंत्र रूप से भगवान् से शक्ति प्राप्त किये बिना शक्तिमान नहीं हो सकता। जब भगवान् पृथ्वी पर अपने नित्यमुक्त पार्षदों के साथ अवतरित होते हैं, तो वे न केवल अपनी दिव्य शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, अपितु वे अपने पार्षद भक्तों को अपना अवतारी सन्देश पूरा करने के लिए आवश्यक शक्ति प्रदान करते हैं। भगवद्गीता (४.५) में भी कहा गया है कि भगवान् तथा उनके नित्य पार्षद पृथ्वी पर अनेक बार अवतरित होते हैं, किन्तु जहाँ भगवान् सभी विभिन्न अवतारों की भूमिकाओं का स्मरण रखते हैं, वहीं पार्षद उनकी परम इच्छा से उन्हें भूल जाते हैं। इसी प्रकार जब भगवान् इस धरा से अन्तर्धान होते हैं, तब वे सारे पार्षदों को अपने साथ लेते जाते हैं। भगवान् ने अर्जुन को जो पराक्रम तथा शक्ति प्रदान की थी, वह भगवान् के उद्देश्य की पूर्ति के लिए थी, किन्तु जब यह उद्देश्य पूरा हो गया, तो अर्जुन से आपात्कालीन शक्तियाँ वापस ले ली गईं, क्योंकि स्वर्ग के निवासियों को भी चकित करनेवाली अर्जुन की इन प्रबल शक्तियों की और आगे आवश्यकता नहीं रह गई थी। वे उनके भगवद्धाम वापस जाने के निमित्त नहीं थीं। यदि अर्जुन-जैसे महान् भक्त को या स्वर्ग के निवासियों को भगवान् शक्ति प्रदान कर सकते है, एवं शक्ति वापस भी ले सकते हैं, तो उन क्षुद्र प्राणियों के विषय में क्या कहा जा सकता है, जो ऐसे महात्माओं की तुलना में नगण्य हैं। अतएव इससे शिक्षा यह मिलती है कि भगवान् से प्राप्त की हुई शक्ति पर किसी को अभिमान नहीं करना चाहिए। अपितु विज्ञ मनुष्य को भगवान् के प्रति ऐसे वरदान के लिए कृतज्ञ होना चाहिए और ऐसी शक्ति का उपयोग भगवान् की सेवा करने के लिए करना चाहिए। भगवान् ऐसी शक्ति को कभी भी वापस ले सकते हैं, अतएव ऐसी शक्ति तथा ऐश्वर्य का सदुपयोग यह है कि उन्हें भगवान् की सेवा में लगाया जाय।
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