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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  1.15.50 
द्रौपदी च तदाज्ञाय पतीनामनपेक्षताम् ।
वासुदेवे भगवति ह्येकान्तमतिराप तम् ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
द्रौपदी—द्रौपदी (पाण्डव पत्नी); —तथा; तदा—उस समय; आज्ञाय—भगवान् कृष्ण को भलीभाँति जानते हुए; पतीनाम्— पतियों के; अनपेक्षताम्—उसकी परवाह न करनेवाले; वासुदेवे—भगवान् वासुदेव (कृष्ण) में; भगवति—भगवान्; हि—ठीक उसी तरह; एक-अन्त—पूर्णतया; मति:—ध्यान; आप—प्राप्त किया; तम्—उसको (भगवान् को) ।.
 
अनुवाद
 
 द्रौपदी ने भी देखा कि उसके पतिगण, उसकी परवाह किये बिना घर छोड़ रहे हैं। वे भगवान् वासुदेव कृष्ण को भलीभाँति जानती थीं। अतएव वे तथा सुभद्रा दोनों भगवान् कृष्ण के ध्यान में लीन हो गईं और अपने-अपने पतियों की सी गति प्राप्त की।
 
तात्पर्य
 हवाई जहाज उड़ाते समय कोई किसी दूसरे जहाजों की संभाल नहीं ले सकता। हर एक को अपने खुद के जहाज की संभाल लेनी होती है और यदि कोई संकट आ पड़े, तो उस अवस्था में कोई अन्य जहाज दूसरे की सहायता नहीं कर सकता। इसी प्रकार जीवन के अन्त में, जब हर एक को अपने घर, भगवद्धाम वापस जाना होता है, तो उसे दूसरे के ऊपर निर्भर न रह कर, स्वयं अपनी संभाल लेनी होती है। हाँ, उडऩे के पूर्व जमीन पर सहायता की जाती है। इसी प्रकार किसी के जीवन काल में उसे उसका गुरु, पिता, माता, सम्बन्धी, पति तथा अन्य लोग सहायता कर सकते हैं, किन्तु भवसागर पार करते समय हर एक को अपनी खुद की परवाह करनी होती है और पहले से प्राप्त उपदेशों का उपयोग करना होता है। द्रौपदी के पाँच पति थे, किन्तु किसी ने नहीं कहा कि चलो। द्रौपदी को अपने महान् पतियों की प्रतीक्षा किये बिना अपनी परवाह स्वयं करनी थी और चूँकि वे पहले से प्रशिक्षित थीं, अतएव उन्होंने तुरन्त पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव कृष्ण का ध्यान किया। पत्नियों को भी उसी तरह पतियों जैसी गति प्राप्त हुई, अर्थात् वे बिना शरीर बदले, भगवान् के धाम पहुँच गईं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का मत है कि द्रौपदी तथा सुभद्रा दोनों को एक सा ही फल मिला, यद्यपि यहाँ पर उनका नाम उल्लिखित नहीं है। उनमें से किसी को भी अपना शरीर त्यागना नहीं पड़ा।
 
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