श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  1.15.6 
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्यप्रियदर्शन: ।
उक्थेन रहितो ह्येष मृतक: प्रोच्यते यथा ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिसके; क्षण—एक क्षण; वियोगेन—वियोग से; लोक:—सारे ब्रह्माण्ड; हि—निश्चय ही; अप्रिय-दर्शन:—प्रत्येक वस्तु प्रतिकूल लगती है; उक्थेन—जीवन से; रहित:—विहीन; हि—निश्चय ही; एष:—ये सारे शरीर; मृतक:—शव; प्रोच्यते— कहे जाते हैं; यथा—जिस तरह ।.
 
अनुवाद
 
 मैंने अभी-अभी उन्हें खोया है, जिनके क्षणमात्र वियोग से सारे ब्रह्माण्ड प्रतिकूल तथा शून्य हो जायेंगे, जिस तरह प्राण के बिना शरीर।
 
तात्पर्य
 वास्तव में जीव के लिए भगवान् से बढक़र अन्य कोई प्रिय नहीं होता। भगवान् अपना विस्तार अपने असंख्य अंशों द्वारा, स्वांश तथा विभिन्नांश रूपों में करते हैं। परमात्मा भगवान् का स्वांश है, जबकि सारे जीव विभिन्नांश हैं। जिस प्रकार भौतिक शरीर में जीव महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है, क्योंकि जीव के बिना शरीर का कोई मूल्य नहीं होता, उसी तरह परमात्मा के बिना जीव की कोई पूर्वस्थिति नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म या परमात्मा को, भगवान् कृष्ण के बिना प्रवेशाधिकार नहीं है, कोई वास्तविक आधार नहीं है। इसकी विशद व्याख्या भगवद्गीता में की गई है। ये सब एक दूसरे से परस्पर सन्नद्ध हैं, या अन्योन्याश्रित हैं। अत: अन्तत: भगवान् ही आश्रयतत्त्व हैं, अतएव हर एक वस्तु के लिए जीवन-स्वरूप हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥