श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 15: पाण्डवों की सामयिक निवृत्ति  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  1.15.7 
यत्संश्रयाद् द्रुपदगेहमुपागतानां
राज्ञां स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्य:
सज्जीकृतेन धनुषाधिगता च कृष्णा ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—जिसके कृपामय; संश्रयात्—बल से; द्रुपद-गेहम्—राजा द्रुपद के महल में; उपागतानाम्—सभी एकत्र; राज्ञाम्—राजाओं का; स्वयंवर-मुखे—स्वयंवर के अवसर पर; स्मर-दुर्मदानाम्—समस्त कामुक विचारवालों का; तेज:—बल; हृतम्—हरा गया; खलु—मानो; मया—मेरे द्वारा; अभिहत:—छेदा गया; च—भी; मत्स्य:—मछली का निशाना; सज्जी-कृतेन—धनुष तैयार करके; धनुषा—उस धनुष से; अधिगता—प्राप्त किया; च—भी; कृष्णा—द्रौपदी ।.
 
अनुवाद
 
 उनकी कृपामयी शक्ति से ही मैं उन समस्त कामोन्मत्त राजकुमारों को परास्त कर सका, जो राजा द्रुपद के महल में स्वयंवर के अवसर पर एकत्र हुए थे। अपने धनुषबाण से मैं मत्स्य लक्ष्य का भेदन कर सका और इस प्रकार द्रौपदी का पाणिग्रहण कर सका।
 
तात्पर्य
 द्रौपदी राजा द्रुपद की सर्वसुन्दरी कन्या थी और जब वह तरुणी हुई तो प्राय: समस्त राजकुमार उससे विवाह करने के इच्छुक थे। लेकिन द्रुपद महाराज ने अपनी पुत्री अर्जुन को ही देने का निश्चय किया, अतएव उन्होंने एक अद्भुत युक्ति सोची। मकान की छत से, एक चक्र के भीतर, एक मछली लटका दी गई। शर्त यह थी कि हर राजकुमार को, रक्षक चक्र से होकर, मछली की आँखें बेधनी होंगी, और उसे लक्ष्य की ओर देखने की अनुमति नहीं होगी। जमीन पर एक जलपात्र था जिसमें लक्ष्य तथा चक्र का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था और पात्र के हिलते हुए जल में पडऩेवाले प्रतिबिम्ब को देखकर लक्ष्य साधना था। महाराज द्रुपद यह भलीभाँति जानते थे कि यह कार्य केवल अर्जुन या फिर कर्ण ही सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं। फिर भी वे अर्जुन को ही अपनी पुत्री सौंपना चाहते थे। जब उस राजदरबार में, द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने सभी राजकुमारों से अपनी युवा बहन का परिचय कराया, तो उस समय कर्ण भी उपस्थित था। लेकिन द्रौपदी ने अत्यन्त चतुरतापूर्वक अर्जुन के प्रतिद्वन्द्वी कर्ण को हटाने के लिए अपने भाई से इच्छा व्यक्त की कि वह केवल क्षत्रिय राजकुमार को ही स्वीकार करेगी। वैश्य तथा शूद्र, क्षत्रियों की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण हैं। कर्ण को एक शूद्र बढ़ई के पुत्र के रूप में जाना जाता था। इस तर्क के आधार पर द्रौपदी ने उसे अस्वीकार कर दिया। जब दरिद्र ब्राह्मण के वेश में अर्जुन ने मत्स्यवेध कर दिया, तो सबों को आश्चर्य हुआ और सबों ने, विशेषतया कर्ण ने, उससे घनघोर युद्ध किया, किन्तु भगवान् कृष्ण की कृपा से अर्जुन राजकुमारों के इस युद्ध में सफल हुआ और उसे द्रौपदी अथवा कृष्णा का हाथ प्राप्त हुआ। अर्जुन जिन भगवान् की शक्ति से ही इतना शक्तिशाली था, उन्हीं की अनुपस्थिति में, इस घटना का स्मरण करके वह शोक कर रहा था।
 
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