दस हजार हाथियों की शक्ति रखनेवाले आपके छोटे भाई ने भगवान् की ही कृपा से जरासंध का वध किया, जिसकी पादपूजा अनेक राजाओं द्वारा की जाती थी। ये सारे राजा जरासंध के महाभैरव यज्ञ में बलि चढ़ाये जाने के लिए लाए गये थे, किन्तु उनको छुड़ा दिया गया। बाद में उन्होंने आपका आधिपत्य स्विकार किया।
तात्पर्य
जरासंध मगध का अत्यन्त शक्तिशाली राजा था। उसके जन्म तथा कार्यकलापों की कथा भी अत्यन्त रोचक है। उसका पिता बृहद्रथ राजा भी मगध का अत्यन्त सम्पन्न एवं शक्तिशाली राजा था। उसने काशी के राजा की दो पुत्रियों से विवाह किया था, किन्तु उसको कोई पुत्र नहीं था। दोनों पत्नियों से कोई पुत्र उत्पन्न न होने से निराश होकर राजा अपनी दोनों पत्नियों के साथ जंगल में जाकर तपस्या करने लगा। वहाँ पर एक महर्षि ने उसे पुत्र प्राप्त करने का वरदान दिया और रानियों को खाने के लिये एक आम दिया। रानियों ने आम खा लिया तो वे शीघ्र ही गर्भिणी हो गईं। राजा अत्यन्त प्रसन्न था कि रानियाँ गर्भवती हैं, किन्तु जब समय पूरा हुआ तो दोनों रानियों के गर्भ से दो भागों में विभाजित एक बालक उत्पन्न हुआ। ये दोनों भाग जंगल में फेंक दिये गये, जहाँ एक महान् असुरिनी रहती थी। वह अत्यन्त प्रसन्न हुई कि उसके खाने के लिए नवजात शिशु का रक्त तथा मांस मिला, किन्तु उत्सुकतावश उसने उन दोनों हिस्सों को जोड़ दिया, तो एक पूर्ण शिशु बन गया और उसमें जान आ गई। यह असुरिनी जरा नाम से विख्यात थी। वह सन्तानहीन राजा के ऊपर दया करके राजा के पास गई और उसे वह सुन्दर बालक भेंट कर आई। राजा उस असुरिनी से अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसे इच्छित पुरस्कार माँगने के लिए कहा। राक्षसी ने इच्छा व्यक्त की कि इस बालक का नाम उसके नाम पर रखा जाय। इस तरह उस बालक का नाम जरासन्ध पड़ा, जिसका अर्थ है जरा नामक असुरिनी द्वारा जोड़ा हुआ। वास्तव में, यह जरासन्ध विप्रचित्ति नामक असुर के अंश-रूप में उत्पन्न हुआ था। जिस साधु ने रानियों को पुत्र का वरदान दिया, वह चन्द्रकौशिक कहलाता था, जिसने राजा के समक्ष उस पुत्र के बारे में भविष्य कथन किया था।
चूँकि जन्म से ही जरासन्ध में आसुरी गुण थे, अत: स्वभावत: वह समस्त भूतप्रेतों के स्वामी, शिवजी का महान् भक्त बना। जिस प्रकार रावण शिवजी का महान् भक्त था, उसी प्रकार जरासन्ध भी था। वह बन्दी बनाये गये सारे राजाओं को महाभैरव (शिव) के समक्ष बलि चढ़ा देता था। इस तरह अपनी सैन्यशक्ति से उसने अनेक छोटे-छोटे राजाओं को हराकर, उन्हें बन्दी बनाकर, महाभैरव के समक्ष बलि चढ़ा दिया था। महाभैरव या कालभैरव के अनेक भक्त बिहार प्रान्त में पाये जाते हैं, जो पहले मगध कहलाता था। जरासन्ध कृष्ण के मामा कंस का सम्बन्धी था, अतएव कंस की मृत्यु के बाद वह कृष्ण का महान् शत्रु बन गया और जरासंध तथा कृष्ण के बीच कई युद्ध हुए। भगवान् कृष्ण उसका वध करना चाहते थे, किन्तु वे यह भी चाहते थे कि जो लोग जरासन्ध के सैनिक-रूप में कार्य कर रहे हैं, वे न मारे जाँय। अतएव उसे मारने की योजना बनाई गई। कृष्ण, भीम तथा अर्जुन तीनों निर्धन ब्राह्मण-वेश में जरासन्ध के पास गये और उससे भिक्षा माँगी। जरासन्ध ब्राह्मणों को भिक्षा देने से कभी इनकार नहीं करता था और उसने अनेक यज्ञ भी किये थे, तो भी वह भक्तिमय सेवा के स्तर पर न था। भगवान् कृष्ण, भीम तथा अर्जुन ने उससे मल्लयुद्ध करने की भिक्षा माँगी और यह तय हुआ कि जरासन्ध केवल भीम से मल्लयुद्ध करेगा। इस तरह वे सब जरासन्ध के अतिथि तथा प्रतिद्वन्द्वी भी थे। भीम तथा जरासन्ध कई दिनों तक मल्लयुद्ध करते रहे। जब भीम हताश हो गया, तो कृष्ण ने उसे संकेत किया कि बचपन में जरासन्ध को जोड़ा गया था। अत: भीम ने पुन: उसे दो भागों में चीर करके मार डाला और जितने राजा महाभैरव के समक्ष बलि किये जाने के लिए बन्दीगृह में रोके गये थे, उन सबों को भीम ने छुड़ाया। इस तरह पाण्डवों के प्रति कृतज्ञ होने के कारण उन्होंने राजा युधिष्ठिर का आधिपत्य स्वीकार किया।
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