श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 16: परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  1.16.1 
सूत उवाच
तत: परीक्षिद् द्विजवर्यशिक्षया
महीं महाभागवत: शशास ह ।
यथा हि सूत्यामभिजातकोविदा:
समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; तत:—तत्पश्चात्; परीक्षित्—महाराज परीक्षित ने; द्विज-वर्य—श्रेष्ठ ब्राह्मण; शिक्षया— अपने उपदेशों से; महीम्—पृथ्वी को; महा-भागवत:—परम भक्त; शशास—शासन किया; ह—भूतकाल में; यथा—जैसा उन्होंने कहा था; हि—निश्चय ही; सूत्याम्—उनके जन्म के समय; अभिजात-कोविदा:—जन्म के समय पटु ज्योतिषी; समादिशन्—अभिमत व्यक्त किया; विप्र—हे ब्राह्मण; महत्-गुण:—महान् गुण; तथा—उसी के अनुसार सत्य ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : हे विद्वान ब्राह्मणों, तब महाराज परीक्षित श्रेष्ठ द्विज ब्राह्मणों के आदेशों के अनुसार महान् भगवद्भक्त के रूप में संसार पर राज्य करने लगे। उन्होंने उन महान् गुणों के द्वारा शासन चलाया, जिनकी भविष्यवाणी उनके जन्म के समय पटु ज्योतिषियों ने की थी।
 
तात्पर्य
 महाराज परीक्षित के जन्म के समय निपुण ज्योतिषी ब्राह्मणों ने उनके कुछ गुणों की भविष्यवाणी की थी। भगवान् के महान् भक्त होने के कारण, महाराज परीक्षित में इन सारे गुणों का विकास हो सका। असली योग्यता भगवद्भक्त होना है और धीरे-धीरे सभी ग्राह्य गुणों का विकास होता जाता है। महाराज परीक्षित महाभागवत या प्रथम श्रेणी के भक्त थे, जो न केवल भक्ति के विज्ञान में पटु थे अपितु अपने दिव्य उपदेशों से अन्यों को भी भक्त बनाने में समर्थ थे। अतएव महाराज परीक्षित प्रथम श्रेणी के भक्त थे और इस तरह वे बड़े-बड़े मुनियों तथा विद्वान ब्राह्मणों से राय लिया करते थे, जो उन्हें शास्त्रों के आधार पर सलाह दे सकें कि राज्य का शासन किस तरह चलाया जाय। ऐसे महान् राजा आजकल के निर्वाचित प्रशासकों से अधिक जिम्मेदार होते थे, क्योंकि वे महापुरुषों द्वारा वैदिक साहित्य में संकलित अनुदेशों का पालन करके उनके प्रति कृतज्ञ रहते थे। तब ऐसे अव्यावहारिक मूर्खों की आवश्यकता नहीं होती थी, जो नित्य ही नये-नये विधान बनाएँ और अपनी सुविधा को ध्यान में रखकर उसे बारम्बार बदलते रहें। ऐसे विधि-विधान तो मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर तथा अन्य मुक्त मुनियों द्वारा पहले ही स्थापित किये जा चुके थे और उनका प्रचलन सभी युगों तथा सभी स्थानों के लिए उपयुक्त था। अतएव सारे विधि-विधान प्रामाणिक थे और किसी त्रुटि या दोष से रहित होते थे। महाराज परीक्षित जैसे राजाओं की अपनी सलाहकार-समिति होती थी और इस समिति के सदस्य या तो ऋषि-मुनि होते थे या प्रथम श्रेणी के ब्राह्मण होते थे। वे कोई वेतन नहीं लेते थे, न उन्हें ऐसे वेतन की आवश्यकता ही रहती थी। राजा बिना किसी व्यय के श्रेष्ठ सलाह प्राप्त करता था। वे स्वयं समदर्शी होते थे—सबों के प्रति समदर्शी, चाहे मनुष्य हो या पशु। वे राजा को ऐसी सलाह नहीं देते थे कि मनुष्य को तो सुरक्षा प्रदान की जाय और बेचारे पशुओं का वध किया जाय। समिति के ऐसे सदस्य न तो मूर्ख होते थे, न दिवास्वप्न देखने वाले मूर्खों के प्रतिनिधि होते थे। वे सभी स्वरूपसिद्ध होते थे और वे भलीभाँति जानते थे कि किस तरह राज्य के सारे जीव इस जीवन में तथा अगले जीवन में सुखी रह सकते हैं। वे ‘खाओ, पियो और मौज करो’ जैसी भोगवादी विचारधारा के समर्थक न थे। वे वास्तविक अर्थ में विचारक होते थे और यह भलीभाँति जानते थे कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है। इन सारे प्रतिबन्धों के अन्तर्गत राजा की सलाहकार समिति सही निर्देश देती थी और राजा या प्रशासनाधिकारी स्वयं योग्य भगवद्भक्त होने के कारण राज्य के कल्याण के लिए उन आदेशों की छानबीन करके उनका पालन करता था। महाराज युधिष्ठिर अथवा महाराज परीक्षित के समय का राज्य वास्तव में जन-कल्याणकारी राज्य होता था, क्योंकि राज्य में कोई भी दुखी नहीं रहता था, चाहे वह मनुष्य हो या पशु। महाराज परीक्षित विश्व के जनकल्याणकारी राज्य के एक आदर्श राजा थे।
 
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