सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; यदा—जब; परीक्षित्—महाराज परीक्षित; कुरु-जाङ्गले—कुरु प्रदेश की राजधानी में; अवसत्—रहते थे; कलिम्—कलियुग के लक्षण; प्रविष्टम्—प्रवेश किया; निज-चक्रवर्तिते—अपनी सीमा में; निशम्य—इस तरह का सुनकर; वार्ताम्—समाचार को; अनति-प्रियाम्—अधिक रोचक नहीं; तत:—तत्पश्चात्; शरासनम्—धनुष-बाण; संयुग—अवसर पाकर; शौण्डि:—वीरोचित कार्य-कलाप; आददे—ग्रहण किया ।.
अनुवाद
सूत गोस्वामी ने कहा : जब महाराज परीक्षित कुरु-साम्राज्य की राजधानी में रह रहे थे, तो अपने राज्य की सीमा के भीतर कलियुग के लक्षणों को प्रवेश होते देखा। जब उन्हें इसका पता चला, तो उन्हें यह रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। लेकिन इससे उन्हें उसके विरुद्ध लडऩे का अवसर अवश्य प्राप्त हो सका। अतएव उन्होंने अपना धनुष-बाण उठाया और सैनिक कार्यवाही के लिए सन्नद्ध हो गये।
तात्पर्य
महाराज परीक्षित का राज्य-प्रशासन इतना चुस्त था कि वे अपनी राजधानी में शान्तिपूर्वक रह रहे थे। लेकिन उन्हें समाचार मिल गया कि कलियुग के लक्षण उनकी राज्य सीमा में प्रवेश पा चुके हैं, और उन्हें यह समाचार अच्छा नहीं लगा। कलियुग के लक्षण क्या हैं? ये इस प्रकार हैं: (१) स्त्रियों के साथ अवैध सम्बन्ध, (२) मांस-भक्षण की लत, (३) मादक द्रव्य सेवन (नशा); तथा (४) द्यूत-क्रीड़ा में रुचि। कलियुग का शाब्दिक अर्थ कलह का युग है और मानव समाज में उपर्युक्त चारों लक्षण सभी प्रकार के कलह के मुख्य कारण होते हैं। महाराज परीक्षित ने सुना कि उनके राज्य के कुछ लोग पहले ही उन लक्षणों के शिकार हो चुके हैं, अतएव वे चाह रहे थे कि अशान्ति के ऐसे कारणों के विरुद्ध अविलम्ब कदम उठाये जाँय। इसका अर्थ यह हुआ कि कम से कम महाराज परीक्षित के राज्य-काल तक जन-जीवन में ऐसे लक्षण व्यावहारिक रूप से अज्ञात थे और ज्योंही उनका थोड़ा पता चला, त्योंही वे उन्हें समूल नष्ट कर देना चाहते थे। यह समाचार उन्हें रुचिकर नहीं लगा, लेकिन एक दृष्टि से महाराज परीक्षित को युद्ध करने का यह अवसर मिल रहा था। यद्यपि छोटे छोटे राज्यों से लडऩे की आवश्यकता न थी, क्योंकि वे सभी शान्तिपूर्वक उनके अधीन थे, लेकिन कलियुग के दुष्टों ने उन्हें अवसर प्रदान किया कि वे अपनी शूरता का प्रदर्शन कर सकें। पक्का क्षत्रिय, युद्ध का अवसर पाते ही, प्रफुल्लित होता है, जिस तरह खेल के मैच का अवसर उपस्थित होने पर खिलाड़ी उत्सुक हो उठता है। यह कोई तर्क नहीं है कि कलियुग में ऐसे लक्षण पूर्व-निर्धारित होते हैं। यदि ऐसा होता तो फिर ऐसे लक्षणों के विरुद्ध चढ़ाई करने की क्या आवश्यकता थी? ऐसे तर्क आलसी तथा अभागे लोग ही देते हैं। वर्षाऋतु में वर्षा अवश्यम्भावी है; फिर भी लोग अपनी सुरक्षा के लिये सावधानी बरतते हैं। इसी प्रकार कलियुग में सामाजिक जीवन में उपर्युक्त लक्षणों का प्रविष्ट होना अवश्यम्भावी है, लेकिन यह राज्य का कर्तव्य है कि नागरिकों को कलियुग के एजेण्टों के सम्पर्क से बचाएँ। महाराज परीक्षित कलि के लक्षणों में शरीक होनेवाले दुष्टों को दण्डित करना चाह रहे थे और इस तरह धर्मात्मा एवं निर्दोष नागरिकों को बचाना चाहते थे। राजा का धर्म है कि वह ऐसी सुरक्षा प्रदान करे और यह ठीक ही था कि महाराज परीक्षित लडऩे के लिए तैयार हो गये।
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