श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 16: परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया  »  श्लोक 13-15
 
 
श्लोक  1.16.13-15 
तत्र तत्रोपश‍ृण्वान: स्वपूर्वेषां महात्मनाम् ।
प्रगीयमाणं च यश: कृष्णमाहात्म्यसूचकम् ॥ १३ ॥
आत्मानं च परित्रातमश्वत्थाम्नोऽस्त्रतेजस: ।
स्‍नेहं च वृष्णिपार्थानां तेषां भक्तिं च केशवे ॥ १४ ॥
तेभ्य: परमसन्तुष्ट: प्रीत्युज्जृम्भितलोचन: ।
महाधनानि वासांसि ददौ हारान् महामना: ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
तत्र तत्र—जहाँ-जहाँ राजा गये; उपशृण्वान:—निरन्तर सुनते रहे; स्व-पूर्वेषाम्—अपने पुरखों के विषय में; महा-आत्मनाम्—जो सबके सब भगवान् के महान् भक्त थे; प्रगीयमाणम्—इस तरह सम्बोधित करनेवालों को; च—भी; यश:—यश; कृष्ण— भगवान् कृष्ण; माहात्म्य—यशस्वी कार्य; सूचकम्—सूचित करनेवाले; आत्मानम्—अपने को; च—भी; परित्रातम्—उद्धार किया; अश्वत्थाम्न:—अश्वत्थामा का; अस्त्र—हथियार; तेजस:—शक्तिशाली किरणें; स्नेहम्—स्नेह; च—भी; वृष्णि पार्थानाम्—वृष्णि तथा पृथा की सन्तानों के बीच; तेषाम्—उन सब की; भक्तिम्—भक्ति; च—भी; केशवे—भगवान् कृष्ण में; तेभ्य:—उनको; परम—अत्यधिक; सन्तुष्ट:—प्रसन्न; प्रीति—आकर्षण; उज्जृम्भित—हर्ष से खुले; लोचन:—नेत्रोंवाला; महा-धनानि—बहुमूल्य धन; वासांसि—वस्त्र; ददौ—दान में दिया; हारान्—गले के हार; महा-मना:—विशाल हृदय-वाला ।.
 
अनुवाद
 
 राजा जहाँ कहीं भी जाते, उन्हें निरन्तर अपने उन महान् पूर्वजों का यशोगान सुनने मिलता, जो सभी भगवद्भक्त थे, तथा भगवान् श्रीकृष्ण के यशस्वी कार्यों की गाथा सुनने को भी मिलती। वे यह भी सुनते कि किस तरह वे स्वयं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रचण्ड ताप से भगवान् कृष्ण द्वारा बचाये गये थे। लोग वृष्णि तथा पृथा-वंशियों के मध्य अत्यधिक स्नेह का भी उल्लेख करते, क्योंकि पृथा भगवान् केशव के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान थी। राजा ने ऐसे यशोगान करनेवालों से अत्यधिक प्रसन्न होकर परम सन्तोष के साथ अपनी आँखें खोलीं। उदारतावश उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें मूल्यवान मालाएँ तथा वस्त्र भेंट किये।
 
तात्पर्य
 राजाओं तथा राज्य के बड़े-बड़े लोगों को स्वागत के सम्बोधनों द्वारा मान दिया जाता है। यह प्रथा अनादिकाल से चली आ रही है। महाराज परीक्षित तो विश्व के विख्यात सम्राटों में से थे, अतएव वे विश्व के जिन-जिन स्थानों में जाते, वहीं उनको मानपत्र दिया जाता। इन सम्बोधनों के विषय होते थे कृष्ण। कृष्ण का अर्थ है कृष्ण तथा उनके सनातन भक्त, जिस तरह राजा का अर्थ होता है, राजा तथा उसके विश्वासपात्र दरबारी-गण।

कृष्ण तथा उनके अनन्य भक्तों को विलग नहीं किया जा सकता। अतएव भक्त के यशोगान का अर्थ है, भगवान् का यशोगान और भगवान् के यशोगान का अर्थ है भक्त का यशोगान। महाराज परीक्षित को अपने पूर्वज, महाराज युधिष्ठिर तथा अर्जुन का यशोगान सुनकर इतनी प्रसन्नता न होती, यदि वे सब भगवान् कृष्ण के कार्यकलापों से जुड़ े न होते। भगवान् अपने भक्तों का उद्धार करने (परित्राणाय साधूनाम् ) के उद्देश्य से ही अवतरित होते हैं। भक्तगण भगवान् की उपस्थिति से ही महिमामंडित हो जाते हैं, क्योंकि वे भगवान् तथा उनकी विभिन्न शक्तियों के बिना क्षण भर भी नहीं रह सकते। भक्तों के लिए भगवान् अपने कार्यों तथा महिमा से उपस्थित रहते हैं। अतएव जब भगवान् के कार्यों द्वारा उनका यशोगान किया जा रहा था, तो उन्हें भगवान् की उपस्थिति का अनुभव हुआ, विशेष रूप से जब भगवान् ने माता के गर्भ में ही उनकी रक्षा की थी। भगवान् के भक्त कभी संकट में नहीं होते, किन्तु भौतिक जगत में वे ऊपरी रूप से भयावह परिस्थितियों में पड़ जाते हैं, क्योंकि यह जगत पद-पद पर संकटों से भरा हुआ है। अतएव जब भगवान् द्वारा भक्तों की रक्षा होती है, तो भगवान् का यशोगान किया जाता है। यदि पाण्डव जैसे भगवद्भक्त कुरुक्षेत्र के युद्ध में फँसे न होते, तो भगवान् कृष्ण कभी भी भगवद्गीता के उद्धोषक के रूप में महिमामण्डित न किये जाते। स्वागत-उद्बोधन में भगवान् के ऐसे समस्त कार्यों का उल्लेख था, अतएव महाराज परीक्षित ने पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होकर ऐसे मानपत्र भेंट करनेवालों को पुरस्कृत किया। आज के तथा तब के स्वागत-उद्बोधन करने में यही अन्तर है कि प्राचीन समय में महाराज परीक्षित जैसे व्यक्ति को ही ऐसे उद्बोधन भेंट किये जाते थे। ऐसे उद्बोधन तथ्यों तथा आँकड़ों से भरे होते थे और जो इन उद्बोधनों को भेंट करता था, वह प्रचुर पुरस्कार पाता था। किन्तु आजकल जो स्वागत-उद्बोधन भेंट किया जाता है, उसमें वास्तविक आँकड़े नहीं रहते। वह किसी पदाधिकारी को प्रसन्न करने के लिए भेंट किया जाता है और प्राय: चापलूसी से भरा हुआ रहता है। और शायद ही ऐसा मान भेंट करनेवाला कभी कोई पुरस्कार पाता हो।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥