श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 16: परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  1.16.20 
पादैर्न्यूनं शोचसि मैकपाद-
मात्मानं वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम् ।
आहो सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा उत स्विन्मघवत्यवर्षति ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
पादै:—तीन पाँवों से; न्यूनम्—विहीन; शोचसि—क्या आप शोक कर रही हो; मा—मेरा; एक-पादम्—केवल एक पाँव; आत्मानम्—अपना शरीर; वा—अथवा; वृषलै:—अवैध मांस-भक्षकों के द्वारा; भोक्ष्यमाणम्—शोषित किये जाने के लिए; आहो:—यज्ञ में; सुर-आदीन्—देवता-गण; हृत-यज्ञ—यज्ञ से रहित; भागान्—हिस्से; प्रजा:—जीव; उत—बढ़ता हुआ; स्वित्—कहीं; मघवति—दुर्भिक्ष में; अवर्षति—वर्षा न होने से ।.
 
अनुवाद
 
 मेरे तीन पाँव नहीं रहे और अब मैं केवल एक पाँव पर खड़ा हूँ। क्या आप मेरी इस दशा पर शोक कर रही हैं या इस बात पर कि अब आगे अवैध मांस-भक्षक आपका शोषण करेंगे? या आप इसलिए दुखी हैं कि अब देवताओं को यज्ञ की बलि में से अपना हिस्सा नहीं मिल रहा, क्योंकि इस समय कोई यज्ञ सम्पन्न नहीं हो रहे? या आप दुर्भिक्ष तथा सूखे के कारण दुखी जीवों के लिए दुखित हो रही हैं?
 
तात्पर्य
 ज्यों-ज्यों कलियुग आगे बढ़ेगा, त्यों-त्यों चार बातों का विशेष रूप से क्षरण होता जायेगा। ये हैं—आयु, दया, स्मरण-शक्ति तथा नैतिक और धार्मिक सिद्धान्त। चूँकि धर्म के चार भागों में से तीन भाग का लोप हो जायेगा, अतएव प्रतीक-स्वरूप बैल केवल एक पैर पर खड़ा था। जब सारे संसार की तीन चौथाई जनता धर्म-हीन हो जाती है, तो पशुओं के लिए नरक-जैसी-स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कलियुग में ईश्वर-विहीन सभ्यताएँ अनेक तथाकथित समितियों को जन्म देंगी, जिनमें ईश्वर की प्रत्यक्ष या परोक्ष निन्दा की जाएगी। और इस प्रकार नास्तिक समितियाँ दुनिया को ऐसा बना देगी, जिससे दुनिया अच्छे लोगों के लिए बसने योग्य नहीं रहेगी। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति श्रद्धा के अनुपात के अनुसार मनुष्य की कोटियाँ होती हैं। सर्वश्रेष्ठ श्रद्धालु व्यक्ति वैष्णव तथा ब्राह्मण हैं, तब क्षत्रिय, फिर वैश्य, तब शूद्र, फिर म्लेच्छ, यवन और अन्त में चण्डाल आते हैं। मानवीय भाव का पतन म्लेच्छों से प्रारम्भ हो जाता है और मनुष्य जाति के पतन में चण्डाल तो अवनति की अन्तिम अवस्था है। वैदिक साहित्य में उल्लिखित ये सारे शब्द किसी जाति-विशेष या जन्म के लिए प्रयुक्त नहीं हैं। ये सामान्य रूप से मनुष्यों के विभिन्न गुण हैं। जन्म-अधिकार या जाति का कोई प्रश्न नहीं है। कोई भी व्यक्ति अपने निजी प्रयासों से इन गुणों को अर्जित कर सकता है और इस तरह वैष्णव का पुत्र म्लेच्छ बन सकता है या चण्डाल का पुत्र ब्राह्मण से भी बढक़र हो सकता है। यह सब उनके सत्संग तथा भगवान् के साथ उनके घनिष्ठ सम्बन्ध के सापेक्ष होता है।

सामान्यतया मांस खानेवालों को म्लेच्छ कहा जाता है। किन्तु सारे मांस-भक्षक म्लेच्छ नहीं होते। जो लोग शास्त्रीय आदेशानुसार मांस ग्रहण करते हैं, वे म्लेच्छ नहीं हैं, किन्तु जो बिना रोक-टोक के मांस-भक्षण करते हैं, वे म्लेच्छ हैं। शास्त्रों में गो-मांस वर्जित है और वेदों के अनुयायी बैलों तथा गायों को विशेष संरक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन इस कलियुग में लोग गाय तथा बैल के शरीर का इच्छानुसार शोषण करेंगे और इस तरह वे नाना प्रकार के कष्टों को बुलावा देते रहेंगे।

इस युग के लोग कोई यज्ञ नहीं करेंगे। म्लेच्छ लोग ऐसे यज्ञों की तनिक भी परवाह नहीं करेंगे, यद्यपि भौतिक इन्द्रिय-भोग में व्यस्त रहनेवालों के लिए यज्ञ करना अनिवार्य है। भगवद्गीता (३.१४- १६) में यज्ञों को सम्पन्न करने की जोरदार संस्तुति की गई है।

सारे जीव स्रष्टा ब्रह्मा द्वारा सृजित हैं और उत्पन्न किये गये जीवों को निरन्तर भगवद्धाम की ओर अग्रसर होने के लिए उन्होंने ही यज्ञ सम्पन्न करने की प्रणाली स्थापित की है। पद्धति यह है कि सभी जीव अन्न तथा शाक की उपज पर जाते हैं और ऐसे खाद्यपदार्थ खाकर वे रक्त तथा वीर्य के रूप में शरीर की जीवनी शक्ति को प्राप्त करते है, और रक्त तथा वीर्य से ही एक जीव दूसरे जीवों को उत्पन्न करने के लिए समर्थ बनता है। किन्तु अन्न, घास इत्यादि तभी उत्पन्न होते हैं, जब वर्षा होती है और बताये गये यज्ञों को सम्पन्न करने से ही वर्षा समुचित रूप से बरसती है। ‘साम’, ‘यजुर्’, ‘ऋग्’ तथा ‘अथर्व’ वेदों के अनुष्ठानों द्वारा ऐसे यज्ञों का निर्देशन होता है। मनु-स्मृति में कहा गया है कि अग्नि की वेदी पर यज्ञ करने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं। जब सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं, तब वे समुद्र से उचित रीति से जल एकत्र करते हैं और इस तरह आकाश में प्रचुर बादल जुटते हैं और तब वर्षा होती है। पर्याप्त वर्षा होने पर मनुष्यों तथा पशुओं के लिए प्रचुर अन्न उत्पन्न होता है और इस तरह जीवों में आगे उन्नति करने के लिए शक्ति प्राप्त होती है। लेकिन म्लेच्छ-गण अन्य पशुओं के साथ-साथ बैलों तथा गायों को मारने के लिए कसाईघर स्थापित करते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि फैक्टरियों की संख्या बढ़ाकर वे उन्नति करेंगे और यज्ञों को सम्पन्न किये बिना तथा अन्न उपजाये बिना भी, वे पशु-मांस पर रह लेंगे। लेकिन उन्हें यह जान लेना चाहिए कि पशुओं के लिए भी उन्हें घास तथा वनस्पति उत्पन्न करनी होगी। अन्यथा पशु जीवित नहीं रह सकते। और पशुओं के लिए घास उत्पन्न करने के लिए उन्हें पर्याप्त वर्षा की आवश्यकता होगी। अतएव अन्तत: उन्हें सूर्यदेव, इन्द्र, चन्द्र जैसे देवों की कृपा पर आश्रित रहना होगा और ऐसे देवताओं को यज्ञ सम्पन्न करके ही प्रसन्न किया जा सकता है।

यह भौतिक जगत एक बन्दीगृह के समान है, जैसाकि हम कई बार बता चुके हैं। देवता भगवान् के सेवक हैं, जो बन्दीगृह के रख-रखाव को देखते हैं। ये देवता चाहते हैं कि जो विद्रोही जीव श्रद्धा विहीन होकर जीवित रहना चाहते हैं, वे धीरे-धीरे भगवान् की परम शक्ति की ओर मुड़ें। अतएव शास्त्रों में यज्ञ सम्पन्न करने की संस्तुति की गयी है।

भौतिकतावादी मनुष्य कठिन श्रम करके इन्द्रिय-भोग के लिए कर्म-फलों को भोगना चाहते हैं। अत: वे जीवन में पग-पग पर कई प्रकार के पाप करते हैं। किन्तु जो लोग सचेतन रहकर भगवान् की भक्तिमय सेवा में लगे रहते है, वे सभी प्रकार के पाप तथा पुण्यों से परे रहते हैं। उनके कार्य-कलाप प्रकृति के तीनों गुणों के कल्मष से मुक्त होते हैं। भक्तों को संस्तुत यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि भक्त का सारा जीवन ही यज्ञ का प्रतीक है। किन्तु जो लोग इन्द्रियभोग के लिए सकाम कर्म में लगे रहते हैं, उन्हें संस्तुत यज्ञ करने चाहिए, क्योंकि सकाम-कर्मियों द्वारा किये गये समस्त पाप-कर्मों से मुक्त होने का यही एकमात्र साधन है। यज्ञ ही ऐसे संचित पापों के शमन का साधन है। देवतागण ऐसे यज्ञों के करने से उसी तरह प्रसन्न होते हैं, जिस प्रकार जेल के बन्दियों के आज्ञाकारी बन जाने पर बन्दीगृह के अधिकारी प्रसन्न होते हैं। किन्तु भगवान् चैतन्य ने केवल एक यज्ञ जिसे सङ्कीर्तन-यज्ञ कहते हैं, करने के लिए संस्तुति की है, और उसमें प्रत्येक व्यक्ति भाग ले सकता है। इस तरह संकीर्तन यज्ञ अर्थात् हरे कृष्ण का कीर्तन से भक्त तथा सकाम कर्मी दोनों ही समान रूप से लाभ उठा हो सकते हैं।

 
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