किं क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान्
राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि ।
इतस्ततो वाशनपानवास:
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
किम्—क्या; क्षत्र-बन्धून्—अयोग्य प्रशासक; कलिना—कलियुग के प्रभाव से; उपसृष्टान्—मोह-ग्रस्त; राष्ट्राणि—राज्य के मामले; वा—अथवा; तै:—उनके द्वारा; अवरोपितानि—अव्यवस्थित किया गया; इत:—इधर; तत:—उधर; वा—अथवा; अशन—भोजन ग्रहण करते हुए; पान—पेय; वास:—आवास; स्नान—स्नान; व्यवाय—संभोग; उन्मुख—प्रवृत्त; जीव लोकम्—मानव-समाज ।.
अनुवाद
अब तथाकथित प्रशासक इस कलियुग के प्रभाव से मोहग्रस्त हो गये हैं और इस तरह उन्होंने राज्य के सारे मामलों को अस्त-व्यस्त कर रखा है। क्या आप इस कुव्यवस्था के लिए शोक कर रही हैं? अब सामान्य जनता खाने, पीने, सोने तथा सहवास के विधि-विधानों का पालन नहीं कर रही है और वह सारे कार्य कहीं भी और कैसे भी करने के लिए सन्नद्ध रहती है। क्या आप इस कारण से अप्रसन्न हैं?
तात्पर्य
जीवन की कुछ आवश्यकताएँ ऐसी हैं, जो पशुओं के समान ही हैं—यथा खाना, सोना, डरना तथा सहवास करना। ये शारीरिक आवश्यकताएँ मनुष्य तथा पशु दोनों के लिए हैं। लेकिन मनुष्य को इन इच्छाओं की पूर्ति पशुओं की तरह नहीं, अपितु मानव की भाँति करनी होती है। एक कुत्ता लोगों के समक्ष, बिना हिचक के, कुतिया के साथ संभोग कर सकता है, किन्तु यदि मनुष्य ऐसा करे तो इसे सामान्य रूप से अनाचार कहा जायेगा और उस व्यक्ति को अपराधी की भाँति दण्डित किया जायेगा। अतएव मनुष्य के लिए कुछ विधि-विधान हैं, जो सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी हैं। जब मानव-समाज कलियुग के प्रभाव से मोहग्रस्त हो जाता है, तो ऐसे विधि-विधानों की अनदेखी करता है। लोग इस युग में जीवन की ऐसी आवश्यकताओं में विधि-विधानों का पालन किये बिना लिप्त रहते हैं और सामाजिक तथा चारित्रिक नियमों में ऐसी गिरावट निश्चय ही शोचनीय है, क्योंकि ऐसे पाशविक आचरण के प्रभाव अत्यन्त हानिकारक होते हैं। इस युग में पिता तथा अभिभावक अपने-अपने रक्षितों के आचरण से प्रसन्न नहीं हैं। उन्हें जानना चाहिए कि कितने ही निर्दोष बालक, इस कलि के दुष्प्रभाव में आकर बुरी संगति के शिकार होते हैं। हमें श्रीमद्भागवत से पता चलता है कि अबोध ब्राह्मण-पुत्र, अजामिल, एक बार सडक़ पर चल रहा था, तो उसने एक शूद्र दम्पत्ति को कामपीडि़त होकर एक दूसरे को आलिंगन करते देखा। इससे बालक आकृष्ट हो गया और बाद में वह तमाम व्यसनों का शिकार बन गया। वह शुद्ध ब्राह्मण के पद से गिरकर एक अधम आवारा लुच्चा बन गया और यह सब कुसंगति के कारण हुआ। उस समाय अजामिल जैसा एक भुक्तभोगी था, किन्तु इस कलियुग में बेचारे अबोध विद्यार्थी नित्य सिनेमा के शिकार होते हैं, जिससे पुरुष केवल कामवासना की ओर प्रेरित होते हैं। तथाकथित प्रशासक सबके-सब क्षत्रिय-कर्म में प्रशिक्षित नहीं हैं। जिस तरह ब्राह्मण ज्ञान तथा मार्ग-दर्शन के लिए होते हैं, उसी तरह क्षत्रिय प्रशासन के लिए होते हैं। क्षत्र-बन्धु शब्द उन तथाकथित प्रशासकों या व्यक्तियों का सूचक है, जो संस्कृति तथा परम्परा-विषयक उचित प्रशिक्षण पाये बिना प्रशासक के पद पर बिठा दिये गये हैं। आजकल वे इन उच्च पदों पर उस जनता के मतों द्वारा पहुँच जाते हैं, जिसका स्वयं जीवन के विधि-विधानों में अधोपतन हुआ होता है। जिन लोगों का जीवन-स्तर इतना निम्न हो, वे भला किस तरह उचित व्यक्ति का चुनाव कर सकते हैं? अतएव, कलियुग के प्रभाव से सर्वत्र हर वस्तु—राजनीतिक, सामाजिक, अथवा धार्मिक—उलट-पुलट है, अतएव बुद्धिमान मनुष्य के लिए यह चिन्ता की बात है।
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