धरणी उवाच—माता पृथ्वी ने उत्तर दिया; भवान्—आप; हि—निश्चय ही; वेद—जानते हैं; तत् सर्वम्—वह सब, जिसे आप मुझसे पूछा है; यत्—जो; माम्—मुझसे; धर्म—हे धर्म-रूप पुरुष; अनुपृच्छसि—आप एक-एक करके पूछा; चतुर्भि:—चारों; वर्तसे—आप उपस्थित हो; येन—जिससे; पादै:—पाँवों से; लोक—प्रत्येक लोक में; सुख-आवहै:—सुख को बढ़ानेवाला ।.
अनुवाद
(गाय के रूप में) पृथ्वी देवी ने (बैल-रूप में) धर्म-रूप पुरुष को इस प्रकार उत्तर दिया : हे धर्म, आपने मुझसे जो भी पूछा है, वह आपको ज्ञात हो जायेगा। मैं आपके उन सारे प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करूँगी। कभी आप भी अपने चार पाँवों द्वारा पालित थे और आपने भगवान् की कृपा से सारे विश्व में सुख की वृद्धि की थी।
तात्पर्य
धर्म के नियमों की स्थापना भगवान् स्वयं करते हैं और ऐसे नियमों को कार्यान्वित करनेवाले हैं धर्मराज या यमराज। ऐसे नियम सत्ययुग में पूरी तरह काम करते हैं, त्रेतायुग में इनमें एक चौथाई कमी आ जाती है, द्वापरयुग में आधी कमी आती है और कलियुग में ये एक चौथाई रह जाते हैं और धीरे-धीरे घट कर शून्य पर आ जाते हैं; तब प्रलय हो जाती है। विश्व में सुख धार्मिक नियमों के पालन के अनुपात में मिलता है, चाहे वह व्यक्तिगत रूप से हो या सामूहिक रूप से। सर्वश्रेष्ठ शौर्य यही होगा कि सभी प्रकार की विषमताओं के होते हुए भी, धर्म को धारण किया जाय। इस तरह मनुष्य अपने जीवनकाल में सुखी हो सकता है और अन्तत: भगवद्धाम को लौट सकता है।
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