सत्यम्—सच्चाई; शौचम्—स्वच्छता; दया—दूसरे के दुखों को न सह पाना; क्षान्ति:—क्रोध का कारण होते हुए भी आत्मसंयम; त्याग:—वैराग्य; सन्तोष:—आत्म-तुष्टि; आर्जवम्—स्पष्टता; शम:—मन की स्थिरता; दम:—इन्द्रियों का संयम; तप:—अपने उत्तरदायित्व के प्रति सच्चाई; साम्यम्—मित्र तथा शत्रु के बीच भेदभाव न करना; तितिक्षा—अन्यों के अपराधों के प्रति सहनशीलता; उपरति:—लाभ-हानि के प्रति उदासीनता; श्रुतम्—शास्त्रों के आदेशों का पालन; ज्ञानम्—ज्ञान (आत्म- साक्षात्कार); विरक्ति:—इन्द्रियभोग से अनासक्ति; ऐश्वर्यम्—नायकत्व; शौर्यम्—बहादुरी; तेज:—प्रभाव, प्रताप; बलम्— असम्भव को सम्भव बनाना; स्मृति:—समुचित कर्तव्य की खोज; स्वातन्त्र्यम्—अन्यों पर आश्रित न रहना; कौशलम्—सारी कार्यकुशलता; कान्ति:—सौन्दर्य; धैर्यम्—उपद्रव से मुक्ति; मार्दवम्—दयालुता; एव—इस प्रकार; च—भी; प्रागल्भ्यम्— उदारता; प्रश्रय:—विनय; शीलम्—शील; सह:—संकल्प; ओज:—पूर्ण ज्ञान; बलम्—उपयुक्त दक्षता; भग:—भोग का विषय; गाम्भीर्यम्—प्रसन्नता; स्थैर्यम्—स्थिरता; आस्तिक्यम्—आज्ञाकारिता; कीर्ति:—यश; मान:—पूजित होने के योग्य; अनहङ्कृति:—निरभिमानता; एते—ये सब; च अन्ये—तथा अन्य अनेक; च—तथा; भगवन्—भगवान्; नित्या:—शाश्वत; यत्र—जहाँ; महा-गुणा:—बड़े-बड़े गुण; प्रार्थ्या:—रखने के योग्य; महत्त्वम्—महानता; इच्छद्भि:—इच्छा करनेवाले; न— कभी नहीं; वियन्ति—घटते हैं; स्म—सदैव; कर्हिचित्—किसी समय; तेन—उनके द्वारा; अहम्—मैं; गुण-पात्रेण—समस्त गुणों का आगार; श्री—भाग्य की देवी; निवासेन—रहने के स्थान द्वारा; साम्प्रतम्—हाल ही में; शोचामि—सोच रही हूँ; रहितम्—विहीन; लोकम्—ग्रह; पाप्मना—समस्त पापों के संग्रह से; कलिना—कलि द्वारा; ईक्षितम्—देखा जाता है ।.
अनुवाद
उनमें निम्नलिखित गुण तथा अन्य अनेक दिव्य गुण पाये जाते हैं, जो शाश्वत रूप से विद्यमान रहते हैं और उनसे कभी विलग नहीं होते। ये हैं (१) सच्चाई (२) स्वच्छता (३) दूसरे के दुखों को सह न पाना, (४) क्रोध को नियंत्रित करने की शक्ति, (५) आत्मतुष्टि, (६) निष्कपटता, (७) मन की स्थिरता, (८) इन्द्रियों का संयम, (९) उत्तरदायित्व, (१०) समता, (११) सहनशीलता, (१२) समदर्शिता, (१३) आज्ञाकारिता, (१४) ज्ञान, (१५) इन्द्रिय भोग से अनासक्ति, (१६) नायकत्व, (१७) बहादुरी, (१८) प्रभाव, (१९) असम्भव को सम्भव बनाना, (२०) कर्तव्य पालन, (२१) पूर्ण स्वतंत्रता,(२२) कार्य कुशलता, (२३) सौन्दर्यमयता, (२४) धैर्य, (२५) दयालुता, (२६) उदारता, (२७) विनय, (२८) शील,(२९) संकल्प, (३०) ज्ञान की पूर्णता, (३१) उपयुक्त दक्षता, (३२) समस्त भोग विषयों का स्वामित्व, (३३) प्रसन्नता, (३४) स्थिरता, (३५) आज्ञाकारिता, (३६) यश, (३७) पूजा, (३८) निरभिमानता, (३९) अस्तित्व (भगवान् के रूप में), (४०) शाश्वतता। समस्त सत्त्व तथा सौन्दर्य के आगार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण ने इस धरा पर अपनी दिव्य लीलाएँ बन्द कर दी हैं। उनकी अनुपस्थिति में कलि ने सर्वत्र अपना प्रभाव फैला लिया है। अतएव मैं संसार की यह दशा देखकर अत्यन्त दुखी हूँ।
तात्पर्य
भले ही पृथ्वी को चूर्ण-चूर्ण करके इसके परमाणुओं को गिन लिया जाय, तो भी भगवान् के दिव्य गुणों का अनुमान लगाना दुष्कर होगा। कहा जाता है कि भगवान् अनन्तदेव ने अपनी अनन्त जिह्वाओं से परमेश्वर के दिव्य गुणों का गान करना चाहा, किन्तु भगवान् के गुणों का अनुमान लगा पाना अनन्त वर्षों तक सम्भव न हो पाया। भगवान् के गुणों के विषय में उपर्युक्त कथन उतनी ही दूर तक सही है जहाँ तक मनुष्य उन गुणों को देख पाता है। किन्तु यदि इतने ही गुण मान लिए जाँय, तो भी वे कई उपशीर्षकों में विभाजित किये जा सकते हैं। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, तीसरे गुण, अर्थात् दूसरे के दुखों को न सह पाना, के दो उपविभाग हो सकते हैं—(१) शरणागत जीवों की रक्षा तथा (२) भक्तों के लिए शुभकामनाएँ। भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि वे चाहते हैं कि प्रत्येक जीव उन्हीं की शरण में आये और वे आश्वस्त करते हैं कि जो लोग ऐसा करेंगे, उनकी वे सारे पापों से रक्षा करेंगे। जो शरणागत नहीं हैं, वे भगवान् के भक्त नहीं हैं और इस प्रकार हर एक को विशेष सरंक्षण प्रदान नहीं किया जाता है। किन्तु भक्तों के साथ उनकी समस्त शुभकामनाएँ रहती हैं और जो लोग वास्तव में उनकी दिव्य प्रेमामयी सेवा में लगे रहते हैं, भगवान् उन पर विशेष ध्यान देते हैं। वे ऐसे शुद्ध भक्तों का मार्गदर्शन करते हैं, जिससे वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भगवद्धाम लौटने में समर्थ हो सकें। समता (१०) से, भगवान् हर एक पर समान रूप से दयालु हैं, जिस तरह से सूर्य हर एक को समान रूप से अपनी किरणें वितरित करता है। फिर भी ऐसे अनेक लोग होते हैं, जो सूर्य की किरणों का लाभ नहीं उठा पाते। इसी प्रकार, भगवान् कहते हैं कि उनके शरणागत होना एक प्रकार से सुरक्षा की गारन्टी है, किन्तु जो अभागे हैं, वे इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर पाते और इस प्रकार भौतिक कष्टों को भोगते रहते हैं। इस तरह यद्यपि भगवान् सबों के समान रूप से शुभचिन्तक हैं, तो भी अभागे जीव कुसंगति के कारण ही उनके उपदेशों को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाते। इसके लिए भगवान् को कभी भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वे केवल भक्तों के शुभचिन्तक कहलाते हैं। वे अपने भक्तों के पक्षपाती प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तविकता तो यह है कि यह जीव पर निर्भर करता है कि वह भगवान् के समान व्यवहार को स्वीकार करे या ठुकरा दे।
भगवान् कभी अपने वचनों से मुकरते नहीं। जब वे सुरक्षा का आश्वासन दे देते हैं, तो चाहे जो भी हो, वे अपने वचनों को पूरा करते हैं। यह शुद्ध भक्त का कर्तव्य है कि भगवान् ने, या भगवान् के प्रामाणिक प्रतिनिधि ने अर्थात् गुरु ने, उस पर जो भार सौंपा है, वह उसे पूरा करने के लिए दृढ़ रहे। शेष तो भगवान् अबाध रूप से पूरा करेंगे।
भगवान् का उत्तरदायित्व भी अद्वितीय है। भगवान् का कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि उनके सारे कार्य उनके द्वारा नियुक्त की गई विभिन्न शक्तियों द्वारा सम्पन्न होते हैं। फिर भी वे अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते समय कुछ स्वैच्छिक जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। बालक के रूप में वे ग्वाल बाल की भूमिका निभा रहे थे। उन्होंने नन्द महाराज के पुत्र के रूप में अपनी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से निभाई। इसी प्रकार जब वे महाराज वसुदेव के पुत्र-रूप में क्षत्रिय की भूमिका निभा रहे थे, तब उन्होंने शूरवीर क्षत्रिय की सम्पूर्ण निपुणता दिखलाई। प्राय: सदा ही, क्षत्रिय राजा को युद्ध जीतकर या अपहरण करके पत्नी प्राप्त करनी होती थी। इस तरह का आचरण क्षत्रिय के लिए प्रशंसनीय होता था, क्योंकि क्षत्रिय को अपनी होनेवाली पत्नी के समक्ष बहादुरी का प्रदर्शन करना होता था, जिससे क्षत्रिय पुत्री अपने होनेवाले पति के पराक्रम को देख सके। यहाँ तक कि भगवान् श्रीरामचन्द्र को भी अपने विवाह के समय ऐसे ही शौर्य का प्रदर्शन करना पड़ा। उन्होंने सबसे मजबूत धनुष, हरधनुर् को तोड़ा और समस्त ऐश्वर्य की जननी सीतादेवी को वरण किया। क्षत्रियत्व का प्रदर्शन विवाहोत्सव के समय ही होता है और ऐसे युद्ध में कोई दोष नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने इस उत्तरदायित्व को भी पूरी तरह निभाया, क्योंकि यद्यपि उनकी सोलह हजार से अधिक पत्नियाँ थीं, किन्तु उन्होंने हर एक को पाने के लिए वीर क्षत्रिय की भाँति युद्ध किया था। सोलह हजार पत्नियों के लिए सोलह हजार बार युद्ध करना भगवान् के लिए ही सम्भव था। इसी प्रकार उन्होंने प्रत्येक लीला के प्रत्येक कार्य में पूरी जिम्मेदारी दिखाई।
चौदहवाँ गुण है, ज्ञान, जिसे पुन: पाँच उपविभागों में बाँटा जा सकता है, अर्थात्—(१) बुद्धि, (२) कृतज्ञता, (३) देश काल तथा वस्तु के अनुसार परिस्थितियों को समझने की शक्ति, (४) हर वस्तु का पूर्ण ज्ञान; तथा (५) आत्मज्ञान। जो मूर्ख होते हैं, वे ही अपने उपकारियों के प्रति कृतघ्न होते हैं। लेकिन भगवान् तो खुद के अतिरिक्त अन्य किसी से कोई लाभ नहीं चाहते, क्योंकि वे स्वयंसम्पूर्ण हैं; फिर भी वे अपने भक्तों की अनन्य सेवा से लाभान्वित अनुभव करते हैं। भगवान् अपने भक्तों के प्रति ऐसी सरल, अप्रतिबन्धित सेवा के लिए कृतज्ञता का अनुभव करते हैं और सेवा द्वारा प्रतिदान करते हैं, यद्यपि भक्त के मन में ऐसी कोई इच्छा नहीं रहती। भगवान् की दिव्य सेवा, भक्त के लिए अपने में ही दिव्य लाभ है, अतएव भक्त को भगवान् से किसी वस्तु की आशा नहीं होती। वैदिक नीति-वाक्य, सर्वं खल्व्इदं ब्रह्म, के आधार पर भगवान् अपने तेज की सर्वव्यापी किरणों के द्वारा, जिन्हें ब्रह्मज्योति कहते हैं, प्रत्येक वस्तु के भीतर या बाहर, सर्वव्यापी भौतिक आकाश की तरह, व्याप्त हैं और इस तरह वे सर्वज्ञ भी हैं।
जहाँ तक भगवान् के सौन्दर्य की बात है, उनमें कुछ विशिष्ट लक्षण पाये जाते हैं, जिनसे वे अन्य सारे जीवों से पृथक् हैं, किन्तु इनके अतिरिक्त, उनके कतिपय विशिष्ट सुन्दर लक्षण अत्यन्त आकर्षक हैं, जिनसे परमेश्वर की सर्वसुन्दर कृति, राधारानी का मन भी आकृष्ट हो जाता है। अतएव वे मदनमोहन कहलाते हैं, अर्थात् वे जो कामदेव के मन को भी आकृष्ट करनेवाले हैं। श्रील जीव गोस्वामी प्रभु ने भगवान् के अन्य दिव्य गुणों का भी विश्लेषण किया है और वे इसकी पुष्टि करते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् (परब्रह्म) हैं। वे अपनी अचिन्त्य शक्तियों के कारण सर्वशक्तिमान हैं, अतएव वे योगेश्वर अर्थात् समस्त यौगिक शक्तियों के सर्वोपरि स्वामी हैं। योगेश्वर होने के कारण उनका शाश्वत स्वरूप आध्यात्मिक है—शाश्वतता, ज्ञान तथा आनन्द का सम्मिश्रण है। अभक्तगण उनके ज्ञान की गतिशील प्रकृति को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे उनके ज्ञान के शाश्वत रूप तक पहुँचकर सन्तुष्ट हो जाते हैं। सारे महापुरुष उनके समान ज्ञानवान बनने की आकांक्षा करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य सारा ज्ञान सदैव अपर्याप्त, लोचशील तथा माप्य है, किन्तु भगवान् का ज्ञान सदैव स्थिर तथा अगाध है। श्रील सूत गोस्वामी ने भागवत में इसकी पुष्टि की है कि यद्यपि द्वारका के निवासी नित्य ही भगवान् के दर्शन करते थे, तो भी वे उन्हें पुन: पुन: देखने के लिए उत्सुक रहते थे। जीव भगवान् के गुणों की सराहना अन्तिम लक्ष्य के रूप में तो कर सकते हैं, किन्तु वे कभी उनकी समता नहीं कर सकते। यह भौतिक जगत महत्-तत्त्व की उपज है, जो भगवान् की कारण सागर में योगनिद्रा की स्वप्नावस्था है; फिर भी यह सारी सृष्टि उन्हीं से उत्पन्न प्रतीत होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् की स्वप्नावस्था भी वास्तविक अभिव्यक्ति है। अतएव वे हर वस्तु को अपने दिव्य नियंत्रण में ला सकते हैं। वे जब कभी और जहाँ कहीं भी प्रकट होते हैं, अपने पूर्ण रूप में प्रकट होते हैं।
ऊपर जो कुछ कहा गया है, वह सब होते हुए, भगवान् सृष्टि का व्यापार चालू रखते हैं और ऐसा करते हुए वे अपने उन शत्रुओं को भी मोक्ष प्रदान करते हैं, जिन्हें उन्होंने स्वयं मारा है। वे सर्वोपरि मुक्तात्मा के लिए भी आकर्षक हैं, अतएव वे सभी देवताओं में महान् ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा भी पूज्य हैं। यहाँ तक कि अपने पुरुष अवतार में भी वे सृजन-शक्ति के स्वामी हैं। भौतिक सृजनशक्ति उनकी अध्यक्षता में कार्यशील रहती है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (९.१०) में हुई है। वे भौतिक शक्ति के नियंत्रक कुन्जी समान हैं और असंख्य ब्रह्माण्डों में भौतिक शक्ति के नियंत्रण हेतु वे समस्त ब्रह्माण्डों में असंख्य अवतारों के मूल कारण हैं। अन्य ब्रह्माण्डों में अन्य अवतारों के अतिरिक्त, केवल एक ब्रह्माण्ड में मनु के पाँच लाख से अधिक अवतार होते हैं। लेकिन आध्यात्मिक जगत में, जो महत् तत्त्व के परे है, अवतारों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता—लेकिन विभिन्न वैकुण्ठ-लोकों में भगवान् के पूर्ण अंश होते हैं। वैकुण्ठलोक में महत् तत्त्व के असंख्य ब्रह्माण्डों के भीतर पाये जानेवाले ग्रहों से तिगुनी संख्या में ग्रह हैं। और भगवान् के जितने भी नारायण-रूप हैं, वे सब उनके वासुदेव स्वरूप के अंश हैं। इस तरह वे एक साथ वासुदेव, नारायण तथा कृष्ण हैं। वे श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव हैं—एक में सब। अतएव कोई चाहे कितना महान् क्यों न हो, भगवान् के गुणों की गणना नहीं कर सकता।
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