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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 16: परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  1.16.3 
आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गङ्गायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचरा: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
आजहार—सम्पन्न किया; अश्व-मेधान्—अश्वमेध यज्ञ; त्रीन्—तीन; गङ्गायाम्—गंगा तट पर; भूरि—पर्याप्त; दक्षिणान्— दक्षिणाएँ, पुरस्कार; शारद्वतम्—कृपाचार्य को; गुरुम्—गुरु; कृत्वा—चुनकर; देवा:—देवतागण; यत्र—जहाँ पर; अक्षि— आँखें; गोचरा:—दृष्टिगत ।.
 
अनुवाद
 
 महाराज परीक्षित ने कृपाचार्य को अपना गुरु चुनने के बाद गंगा के तट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किये। इन्हें आगन्तुकों एवं निमंत्रितों को पर्याप्त दक्षिणा देकर संपन्न किया गया। इन यज्ञों में सामान्य लोग भी देवताओं का दर्शन पा सके।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक से लगता है कि स्वर्ग के निवासियों द्वारा अन्तर्ग्रहीय यात्रा सुगम है। भागवत में अनेक स्थलों पर हमने देखा है कि प्रभावशाली राजाओं तथा सम्राटों द्वारा सम्पन्न होनेवाले यज्ञों में स्वर्ग के निवासी भी भाग लेने के लिए पृथ्वी पर आया करते थे। यहाँ भी हम पाते हैं कि महाराज परीक्षित के अश्वमेध यज्ञ में अन्य ग्रहों के देवता यज्ञोत्सव के कारण सामान्य व्यक्ति को भी दिखाई दे रहे थे। देवता सामान्यतया आम लोगों को दृष्टिगोचर नहीं होते, ठीक उसी तरह जिस तरह भगवान् नहीं दिखते। किन्तु जिस तरह भगवान् सामान्य व्यक्ति के लिए दृश्य होने के निमित्त अपनी अहैतुकी कृपा से अवतरित होते हैं, इसी तरह देवता भी सामान्य व्यक्ति को अपनी कृपा से दृष्टिगोचर हुए। यद्यपि स्वर्ग के निवासी इस पृथ्वी के लोगों की आँखों से दिखते नहीं, किन्तु यह महाराज परीक्षित का प्रताप था कि देवताओं ने दृश्य होना स्वीकार कर लिया। राजागण ऐसे यज्ञों के समय जी खोलकर खर्च करते थे, जिस तरह बादल पानी बरसाते हैं। बादल आखिर पानी का दूसरा रूप ही तो है, अथवा दूसरे शब्दों में पृथ्वी का पानी ही बादलों में रूपान्तरित होता है। इसी प्रकार ऐसे यज्ञों में राजाओं द्वारा दिया गया दान प्रजा से ही संग्रह किये गये कर का दूसरा रूप होता है। किन्तु जिस तरह जब प्रचुर वर्षा होती है, तो वह आवश्यकता से अधिक प्रतीत होती है, उसी तरह ऐसे राजाओं द्वारा दिया दान भी प्रजा की आवश्यकताओं से अधिक प्रतीत होता है। संतुष्ट प्रजा कभी राजा के विरुद्ध संघर्ष नहीं करती, अतएव राजतंत्रीय राज्य को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती थी।

महाराज परीक्षित जैसे राजा के लिए भी मार्गदर्शन के लिए गुरु की आवश्यकता थी। ऐसे मार्गदर्शन के बिना आध्यात्मिक जीवन में प्रगति कर पाना सम्भव नहीं है। गुरु को प्रामाणिक होना चाहिए और जो आत्म-साक्षात्कार के लिए इच्छुक रहते हैं, उन्हें वास्तविक सफलता प्राप्त करने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास पहुँचना चाहिए।

 
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