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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 16: परीक्षित ने कलियुग का सत्कार किस तरह किया  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  1.16.35 
का वा सहेत विरहं
पुरुषोत्तमस्य प्रेमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पै: ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो मम यदङ्‌घ्रिविटङ्किताया: ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
का—कौन; वा—या तो; सहेत—सहन कर सकता है; विरहम्—वियोग; पुरुष-उत्तमस्य—पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का; प्रेम— प्रेममयी; अवलोक—चितवन; रुचिर-स्मित—मोहक हँसी; वल्गु-जल्पै:—हृदय को भानेवाली बोली; स्थैर्यम्—गम्भीरता; स- मानम्—प्रणय-सम्बन्धी क्रोध; अहरत्—जीता; मधु—प्रियतमा; मानिनीनाम्—सत्यभामा जैसी स्त्रियों का; रोम-उत्सव:— प्रसन्नता से रोमांच; मम—मेरा; यत्—जिसका; अङ्घ्रि—पाँव; विटङ्किताया:—से अंकित ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव ऐसा कौन है, जो उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विरह की व्यथा को सह सकता है? वे अपनी प्रेमभरी मीठी मुस्कान, सुहावनी चितवन तथा मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा जैसी प्रियतमाओं की गम्भीरता तथा प्रणय क्रोध (हाव-भाव) को जीतनेवाले थे। जब वे मेरी (पृथ्वी की) सतह पर चलते थे, तो मैं उनके चरणकमल की धूल में धँस जाती थी और फिर घास से आच्छादित हो जाती थी, जो हर्ष से उत्पन्न मेरे शरीर पर रोमांच जैसा था।
 
तात्पर्य
 भगवान् तथा भगवान् की हजारों रानियों के मध्य, घर से जाने पर, वियोग की अनेक सम्भावनाएँ थीं, लेकिन जहाँ तक पृथ्वी का सम्बन्ध है, भगवान् के चरणकमलों को तो पृथ्वी पर पडऩा ही था, अतएव वियोग की कोई सम्भावना न थी। किन्तु जब भगवान् पृथ्वी को छोडक़र अपने दिव्य-धाम चले गये, तो पृथ्वी की वियोग-भावना अत्यन्त तीव्र हो गई।
 
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