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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  1.17.1 
सूत उवाच
तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं च वृषलं दद‍ृशे नृपलाञ्छनम् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—श्री सूत गोस्वामी ने कहा; तत्र—वहाँ; गो-मिथुनम्—गाय तथा बैल को; राजा—राजा; हन्यमानम्—मारे जाते हुए; अनाथ-वत्—अपने मालिक से विलग हुए प्रतीत होनेवाले; दण्ड-हस्तम्—हाथों में लट्ठ लिए; —भी; वृषलम्—निम्न जाति के शूद्र को; ददृशे—देखा; नृप—राजा की तरह; लाञ्छनम्—वेश धारण किये ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : उस स्थान पर पहुँचकर महाराज परीक्षित ने देखा कि एक नीच जाति का शूद्र, राजा का वेश बनाये, एक गाय तथा एक बैल को लट्ठ से पीट रहा था, मानो उनका कोई स्वामी न हो।
 
तात्पर्य
 कलियुग का मुख्य लक्षण यह है कि निम्न जाति के शूद्र, अर्थात् ब्राह्मण संस्कृति तथा आध्यात्मिक दीक्षा से रहित मनुष्य प्रशासकों या राजाओं का वेश धारण करेंगे और ऐसे अ-क्षत्रिय शासकों का प्रमुख व्यवसाय होगा, निर्दोष पशुओं को, विशेष रूप से ऐसी गायों तथा बैलों को जान से मारना, जो अपने स्वामियों अर्थात् प्रामाणिक वैश्यों द्वारा अरक्षित होंगी। भगवद्गीता (१८.४४) में कहा गया है कि वैश्यों का कार्य कृषि, गोरक्षा तथा व्यापार से सम्बन्धित है। कलियुग में पतित वैश्य गायों को कसाईघरों में पहुँचाने में लगे रहते हैं। क्षत्रियों का कार्य राज्य के नागरिकों की रक्षा करना है, जबकि वैश्य गायों तथा बैलों की रक्षा करने तथा उन्हें अन्न तथा दूध-उत्पादन में उपयोग करने के लिए होते हैं। गाय दूध देने तथा बैल अन्न उत्पादन करने के लिए होता है। लेकिन कलियुग में शूद्र जाति के लोग प्रशासक-पदों पर हैं और माता एवं पिता तुल्य गाएँ तथा बैल, वैश्यों के द्वारा सुरक्षित न होने के कारण, शूद्र प्रशासकों द्वारा संचालित कसाईघरों में भेज दिये जाते हैं।
 
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