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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 10-11
 
 
श्लोक  1.17.10-11 
यस्य राष्ट्रे प्रजा: सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभि: ।
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गति: ॥ १० ॥
एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रह: ।
अत एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
यस्य—जिसके; राष्ट्रे—राज्य में; प्रजा:—जीव; सर्वा:—सारे; त्रस्यन्ते—भयभीत रहते हैं; साध्वि—हे साध्वी; असाधुभि:—दुष्टों के द्वारा; तस्य—उस; मत्तस्य—मोह-ग्रस्त का; नश्यन्ति—नष्ट हो जाते हैं; कीर्ति:—यश; आयु:—आयु, उम्र; भग:—सम्पत्ति, धन; गति:—दूसरा जन्म; एष:—ये हैं; राज्ञाम्—राजाओं के; पर:—श्रेष्ठ; धर्म:—वृत्ति, धर्म; हि—निश्चय ही; आर्तानाम्—कष्ट भोगनेवालों के; आर्ति—कष्ट; निग्रह:—दमन; अत:—अतएव; एनम्—इस आदमी को; वधिष्यामि—मैं मार डालूँगा; भूत- द्रुहम्—जीवों की हिंसा करनेवाला; असत्-तमम्—अत्यन्त दुष्ट ।.
 
अनुवाद
 
 हे साध्वी, यदि राजा के राज्य में भी सभी प्रकार के जीव त्रस्त रहें, तो राजा की ख्याति, उसकी आयु तथा उसका उत्तम पुनर्जन्म (परलोक) नष्ट हो जाते हैं। यह राजा का प्रधान कर्तव्य है कि जो पीडि़त हों, सर्वप्रथम उनके कष्टों का शमन किया जाय। अतएव मैं इस अत्यन्त दुष्ट व्यक्ति को अवश्य मारूँगा, क्योंकि यह अन्य जीवों के प्रति हिंसक है।
 
तात्पर्य
 जब किसी गाँव या नगर में जंगली पशु उत्पात मचाते हैं, तो पुलिस या दूसरे लोग उन्हें मारने की कार्यवाही करते हैं। इसी तरह, सरकार का कर्तव्य है कि वह समस्त असामाजिक तत्त्वों को, यथा चोरों, डकैतों तथा हत्यारों को तुरन्त मार डाले। वही दंड पशु-बधिकों को भी दिया जाना चाहिए, क्योंकि पशु भी राज्य की प्रजा हैं। प्रजा का अर्थ है, जिसने राज्य में जन्म लिया हो वह, और इसमें मनुष्य तथा पशु दोनों सम्मिलित हैं। जो भी जीव राज्य में जन्म लेता है, उसका मूल अधिकार है कि वह राजा के संरक्षण में रहे। जंगल के पशु भी राजा की प्रजा हैं, अतएव उन्हें भी जीने का अधिकार है। तो भला गाय तथा बैल जैसे घरेलू पशुओं के विषय में क्या कहा जा सकता है।

यदि कोई जीव किसी अन्य जीव को डराता है, तो वह अत्यन्त दुष्ट है और राजा को चाहिए कि वह तुरन्त ऐसे उत्पाती का वध कर दे। जिस प्रकार उत्पात मचानेवाले जंगली पशु को मार दिया जाता है, उसी तरह जो व्यक्ति जंगली पशुओं या अन्य पशुओं को वृथा ही मारता या त्रस्त करता है, उसे तुरन्त दण्डित किया जाना चाहिए। ईश्वरी विधान के अनुसार सारे जीव, चाहे वे जिस स्वरूप के हों, भगवान् की संतान हैं और किसी को अन्य पशु को मारने का कोई अधिकार नहीं है, जब तक ईश्वरी विधि-संहिता उसकी आज्ञा न दे। बाघ अपने जीवन-निर्वाह के लिए छोटे-छोटे पशुओं को मार सकता है, किन्तु मनुष्य अपने निर्वाह के लिए किसी पशु को नहीं मार सकता। यह उस ईश्वर का विधान है, जिन्होंने यह नियम बनाया है कि एक पशु दूसरे को खाकर जीता है। इसी तरह शाकाहारी भी अन्य जीवों को खाकर जीवित रहते हैं। अतएव नियम यह है कि ईश्वरी-विधान में जो भी निश्चित है, उसी के अनुसार विशेष जीवों को खाकर ही जीव को जीवित रहना चाहिए। ईशोपनिषद् का निर्देश है कि मनुष्य को भगवान् के निर्देशानुसार रहना चाहिए, अपनी इच्छा के अनुसार नहीं। मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त तरह-तरह के अन्नों, फलों तथा दूध से जीवन-यापन कर सकता है और कुछ मामलों को छोडक़र, उसे पशु-मांस खाने की आवश्यकता नहीं है।

कभी-कभी दार्शनिक तथा विद्वान कहा जाने वाला मोह-ग्रस्त राजा या प्रशासक भी अपने राज्य में कसाईघर चलाने की अनुमति यह जाने बिना दे देता है कि पशुओं के उत्पीडऩ से ऐसा मूर्ख राजा या प्रशासक नरक को जाता है। प्रशासक को अपनी प्रजा-जिसमें मनुष्य तथा पशु दोनों आते हैं, उनकी सुरक्षा के प्रति सतर्क रहना चाहिए और पूछ-ताछ करते रहना चाहिए कि कहीं पर कोई जीव किसी अन्य जीव को सता तो नहीं रहा। सतानेवाले जीव को तुरन्त ही पकड़ कर, मार डालना चाहिए जैसाकि महाराज परीक्षित ने संकेत दिया।

जनता की सरकार को या जनता द्वारा चलाई जानेवाली सरकार को, मूर्ख सरकारी लोगों की इच्छानुसार, निर्दोष पशुओं के वध की आज्ञा नहीं मिलनी चाहिए। उन्हें शास्त्रोक्त ईश्वर की संहिता को जानना चाहिए। महाराज परीक्षित यहाँ उद्धरण देते हैं कि ईश्वर की संहिता के अनुसार, लापरवाह राजा या प्रशासक अपनी ख्याति, आयु, बल तथा अन्त में उन्नतिमय जीवन तथा मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त करने के अवसर को खतरे में डाल देता है। ऐसे मूर्ख लोग अगले जीवन के अस्तित्व में भी विश्वास नहीं करते।

इस श्लोक की टीका करते समय, हमारे समक्ष एक महान् आधुनिक राजनेता का वक्तव्य है, जिसकी हाल ही में मृत्यु हुई और जो अपनी अन्तिम इच्छा व्यक्त कर गया है, जिससे महाराज परीक्षित द्वारा व्यक्त की गई ईश्वरी संहिता के विषय में उसका अज्ञान प्रकट होता है। यह राजनेता ईश्वरी संहिता से इतना अनजान था कि उसने लिखा है, “मैं ऐसे किन्हीं अनुष्ठानों में विश्वास नहीं करता और विधि के रूप में भी उनका पालन करना तो एक प्रकार का छलावा और अपने आपको तथा अन्यों को धोखा देना होगा...इस विषय में मेरी कोई धार्मिक भावना नहीं है।”

जब हम आधुनिक युग के महान् राजनेता के इस वक्तव्य एवं महाराज परीक्षित के वक्तव्य में अन्तर ढूँढते हैं, तो हमें जमीन-आसमान का अन्तर दिखता है। महाराज परीक्षित शास्त्रीय संहिता के अनुसार धर्मात्मा थे, जबकि आधुनिक राजनेता अपने निजी विश्वास तथा भावना के अनुसार चलता है। इस संसार का कोई भी महान् पुरुष आखिर बद्धजीव ही है। उसके हाथ-पैर भौतिक प्रकृति की रस्सी से बँधे हैं, फिर भी वह अपने मनमाने विचारों द्वारा कर्म करने के लिए अपने को स्वतंत्र समझता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि महाराज परीक्षित के काल में लोग सुखी थे और पशुओं को समुचित संरक्षण दिया जाता था, क्योंकि प्रशासक न तो मनमानी करता था, न ईश्वरी नियम से अनजान होता था। मूर्ख श्रद्धाविहीन प्राणी ही ईश्वर के अस्तित्व की उपेक्षा करने का प्रयत्न करते हैं और बहुमूल्य मानव जीवन की बाजी लगाकर अपने आपको धर्म-निरपेक्ष होने का दावा करते रहते हैं। मानव-जीवन विशेष रूप से ईश्वर के विज्ञान को जानने के लिए मिलता है, लेकिन मूर्ख प्राणी, विशेषतया इस कलियुग में, ईश्वर को यथार्थ रूप में जानने के बदले, धार्मिक विश्वास तथा ईश्वर के अस्तित्व के विरुद्ध प्रचार करते हैं, यद्यपि वे जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के लक्षणों द्वारा ईश्वरीय नियमों से जकड़े रहते हैं।

 
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