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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  1.17.14 
जनेऽनागस्यघं युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
जने—जीवों में; अनागसि—निरपराध; अघम्—कष्ट; युञ्जन्—लगाकर; सर्वत:—सर्वत्र; अस्य—ऐसे अपराधियों का; — तथा; मत्-भयम्—मेरा भय; साधूनाम्—ईमानदार व्यक्तियों का; भद्रम्—कल्याण; एव—निश्चय ही; स्यात्—होगा; असाधु— दुष्ट; दमने—दमन में; कृते—ऐसा किये जाने पर ।.
 
अनुवाद
 
 निरपराध जीवों को जो कोई भी कष्ट पहुँचाता है, उसे चाहिए कि विश्व में जहाँ कहीं भी हो, मुझसे डरे। दुष्टों का दमन करने से निरपराध व्यक्ति को स्वत: लाभ पहुँचता है।
 
तात्पर्य
 बेईमान दुष्ट लोग राज्य के कायर तथा नपुंसक शासनाध्यक्षों के कारण फूलते-फलते हैं। किन्तु जब शासनाध्यक्ष, राज्य के किसी भी कोने के सभी प्रकार के बेईमान दुष्टों का दमन करने में समर्थ होते हैं, तो वे पनप नहीं पाते। जब दुष्टों को दृष्टान्त रूप से दण्डित किया जाता है, तो समस्त भद्रता स्वत: ही उसके पीछे पीछे आती है। जैसा पहले कहा जा चुका है, यह राजा या प्रशासक का मुख्य कर्तव्य है कि वह शान्त, निरपराध प्रजा को सभी प्रकार से सुरक्षा प्रदान करे। भगवान् के भक्त स्वभाव से शान्त तथा निरपराध होते हैं, अतएव यह राज्य का मूल कर्तव्य है कि वह हर एक को भगवद्-भक्त बनने में सहायता करे। इस तरह स्वत: ही सारे नागरिक शान्त तथा निरपराध होंगे। तब राजा का एकमात्र कर्तव्य रह जायेगा बेईमान दुष्टों का दमन करना। इससे सारे मानव-समाज में शान्ति तथा एकता आयेगी।
 
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