राजा ने कहा : अहो! तुम तो बैल के रूप में हो। तुम तो धर्म के सत्य को जानते हो और तुम सिद्धान्त के अनुसार बोल रहे हो कि अधार्मिक कर्मों के अपराधी के लिए वांछित गन्तव्य (गति) वही है, जो उस अपराधी की पहचान करनेवाले की है। तुम साक्षात् धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो।
तात्पर्य
भक्त का निष्कर्ष यही है कि भगवान् की इच्छा के बिना, कोई उपकारी बनने या हानि पहँुचाने वाला बनने के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं होता। अतएव भक्त किसी को ऐसे कर्म के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं मानता, किन्तु वह दोनों ही किस्सों में यह मान लेता है कि हानि या लाभ ईश्वर प्रदत्त हैं और इस तरह यह उनकी कृपा है। लाभ के विषय में, इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि वह ईश्वर प्रदत्त होता है, लेकिन हानि या पराजय के विषय में मनुष्य संशय करता है कि भला भगवान् अपने भक्त पर इतना निष्ठुर क्यों होंगे कि उसे विपत्ति में डाले? ईसा मसीह को जब अज्ञानी लोगों ने क्रूस पर चढ़ा दिया, तो वे महान् विपत्ति में पड़े प्रतीत होते थे, लेकिन वे अपराधकर्ता के ऊपर कभी क्रुद्ध नहीं हुए। अनुकूल या प्रतिकूल वस्तु को स्वीकार करने की यही विधि है। इस तरह भक्त के लिए अपराधी की बुराई करनेवाला अपराधकर्ता के ही समान पापी है। भगवत्कृपा से भक्त सभी प्रकार की विपत्तियाँ सहता है। महाराज परीक्षित ने इसे देखा, इसीलिये वे समझ सके कि यह बैल और कोई न होकर, साक्षात् धर्म है। दूसरे शब्दों में, भक्त को किसी तरह का कष्ट नहीं होता, क्योंकि तथाकथित कष्ट भी भक्त के लिए भगवान् की कृपा है, क्योंकि भक्त भगवान् को हर वस्तु में देखता है। गाय तथा बैल ने कभी राजा से यह शिकायत नहीं की कि वे कलियुग द्वारा सताये जा रहे हैं, यद्यपि राज्याधिकारियों के समक्ष सभी लोग ऐसी शिकायतें पेश करते हैं। बैल के असाधारण आचरण से ही राजा ने निष्कर्ष निकाला कि बैल साक्षात् धर्म था, क्योंकि धर्म की बारीकियों को अन्य कोई भी इस तरह नहीं समझ सकता।
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