इस प्रकार निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवान् की शक्तियाँ अचिन्त्य हैं। कोई न तो मानसिक चिन्तन द्वारा, न ही शब्द-चातुरी द्वारा उनका अनुमान लगा सकता है।
तात्पर्य
यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि भक्त को कर्ता की पहचान करने से क्यों विरत होना चाहिए, जब वह यह निश्चित रूप से जानता है कि भगवान् ही सब वस्तुओं के कर्ता हैं। अन्तिम कर्ता को जानते हुए, मनुष्य को चाहिए कि वह वास्तविक सम्पन्नकर्ता से अनजान नहीं बना रहे। इस सन्देह का उत्तर यह है कि भगवान् भी प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी नहीं होते, क्योंकि उनके द्वारा नियुक्त मायाशक्ति के द्वारा ही सम्पन्न होता है। माया सदैव भगवान् की परम सत्ता के विषय में सन्देह उत्पन्न करती रहती है। धर्म यह अच्छी तरह जानता था कि परमेश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी सम्पन्न नहीं हो सकता, तो भी माया उसे संशय में डाल रही थी, जिससे वह परम कारण बताने से कतराता रहा। यह संशय, कलि तथा माया दोनों के कल्मष के कारण था। कलियुग का सारा वातावरण भ्रामक शक्ति के कारण विशाल रूप में दिखता है और इसकी माप अकध्य है।
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