हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  1.17.24 
तप: शौचं दया सत्यमिति पादा: कृते कृता: ।
अधर्मांशैस्त्रयो भग्ना: स्मयसङ्गमदैस्तव ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
तप:—तपस्या; शौचम्—पवित्रता; दया—दया; सत्यम्—सत्यता; इति—इस प्रकार; पादा:—पैर; कृते—सत्ययुग में; कृता:— स्थापित; अधर्म—अधर्म; अंशै:—अंशों द्वारा; त्रय:—तीनों मिलकर; भग्ना:—टूटे हुए; स्मय—अहंकार; सङ्ग—अत्यधिक स्त्री-प्रसंग; मदै:—नशे से; तव—तुम्हारा ।.
 
अनुवाद
 
 सत्ययुग में तुम्हारे चारों पैर तपस्या, पवित्रता, दया तथा सचाई के चार नियमों द्वारा स्थापित थे। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार, कामवासना तथा नशे के रूप में सर्वत्र व्याप्त अधर्म के कारण तुम्हारे तीन पाँव टूट चुके हैं।
 
तात्पर्य
 भ्रामक शक्ति या भौतिक प्रकृति जीव पर उस अनुपात में अपना प्रभाव दिखाती है, जिस अनुपात में जीव माया के भ्रामक आकर्षण का शिकार होता है। पतिंगे प्रकाश की चमक से आकृष्ट होते हैं और इस तरह वे अग्नि के शिकार हो जाते हैं। इसी प्रकार, ठगिनी शक्ति माया सदैव बद्धजीवों को मोहित करके उन्हें मोह की अग्नि में झोंकती रहती है। वैदिक शास्त्र बद्धजीवों को आगाह करते हैं कि वे इस भ्रम के शिकार न बनें, अपितु इससे छुटकारा प्राप्त करें। वेद हमें आगाह करते हैं कि हम अज्ञान के अंधकार में न जाकर, प्रकाश के पथ पर अग्रसर हों। भगवान् स्वयं भी हमें आगाह करते हैं कि माया की ठगिनी शक्ति को जीतना अत्यन्त दुष्कर है, किन्तु पूरी तरह जो भगवान् की शरण में चला जाता है, वह सरलता से इसे जीत सकता है। लेकिन भगवान् के चरणकमलों के आश्रय में जाना आसान नहीं है। ऐसी शरण तो तपस्या, पवित्रता, दया तथा सत्य से युक्त पुरुषों को ही मिल सकती है। उन्नत सभ्यता के ये चारों नियम सत्ययुग के उल्लेखनीय लक्षण थे। उस युग में, प्रत्येक मनुष्य एक तरह से उच्चकोटि का योग्य ब्राह्मण होता था और आश्रमों में सभी परमहंस, अर्थात् उच्चकोटि के संन्यासी होते थे। सांस्कृतिक आधार के कारण मनुष्यों को माया ठगती नहीं थी। ऐसे प्रबल चरित्रवान व्यक्ति अपने को माया के पाश से दूर रखने में सक्षम थे। लेकिन धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों ब्राह्मण संस्कृति के मूल सिद्धान्तों—तपस्या, पवित्रता, दया तथा सत्य में अहंकार, कामवासना तथा नशे में आनुपातिक वृद्धि के कारण कटौती होती गई, त्यों-त्यों मोक्ष का मार्ग या तो दिव्य आनन्द का मार्ग मानव समाज से दूर और दूर होता चला गया। कलियुग की अवधि बढ़ते रहने से लोग अत्यन्त अहंकारी हो रहे हैं और वे स्त्रियों तथा नशे के प्रति आसक्त रहते हैं। कलियुग के प्रभाव से कंगाल को भी अपनी कौड़ी का अभिमान है; स्त्रियाँ पुरुषों के मन को हरने के लिए, एक से एक आकर्षक वस्त्र पहनती हैं और पुरुष को शराब पीने, धूम्रपान करने, चाय पीने तथा तम्बाखू चबाने की लत पड़ गई है। ये सारी आदतें, या सभ्यता की तथाकथित प्रगति ही, सारे अधर्म की जड़ है और इसीलिए व्यभिचार, घूस तथा भाई-भतीजावाद व्याप्त हैं। मनुष्य इन बुराइयों को कानूनों तथा पुलिस द्वारा नहीं रोक सकता, लेकिन वह मन के रोग को सही दवा करके ठीक कर सकता है—यह दवा है, ब्राह्मण संस्कृति अर्थात् तप, पवित्रता, दया तथा सत्य के नियमों का पक्षधर बनना। आधुनिक सभ्यता तथा आर्थिक विकास से गरीबी तथा अभाव की नई स्थिति उत्पन्न हो रही है, जिससे उपभोक्ता वस्तुओं की कालाबाजारी की जा रही है। यदि समाज में नेता तथा धन-सम्पन्न व्यक्ति अपनी संचित सम्पत्ति का आधा भाग इन पथभ्रष्ट लोगों पर खर्च करें और उन्हें ईश्वर चेतना अर्थात् भागवत् का ज्ञान प्रदान करें, तो निश्चय ही कलियुग इन बद्धजीवों को अपने जाल में फँसाने में असफल होगा। हमें यह निरन्तर स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्या अहंकार, अपने जीवन मूल्यों के उच्च अनुमान, स्त्रियों के प्रति अत्यधिक आसक्ति या उनकी संगति तथा नशे से मानवीय सभ्यता शन्ति के मार्ग से विपथ हो जायेगी, चाहे लोग विश्वशान्ति के लिए कितना ही हल्लागुल्ला क्यों न करें। भागवत के सिद्धान्तों का उपदेश सारे मनुष्यों को स्वत: संयमी, भीतर-बाहर से स्वच्छ, दुखियों के प्रति दयालु तथा दैनिक आचरण में सच्चा बनायेगा। मानव समाज की बुराइयाँ, जो आज के समय में स्पष्ट रूप से देखने में आती हैं, उन्हें ठीक करने का यही उपाय है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥