श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  1.17.25 
इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यत: ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधित: कलि: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
इदानीम्—इस समय; धर्म—हे धर्मरूप; पाद:—पाँव; ते—तुम्हारा; सत्यम्—सत्य; निर्वर्तयेत्—किसी तरह जीना; यत:— जिससे; तम्—उसको; जिघृक्षति—नष्ट करने का प्रयत्न करता है; अधर्म:—अधर्म रूप; अयम्—यह; अनृतेन—छल से, असत्य से; एधित:—बढ़ता हुआ; कलि:—साक्षात् कलि (कलह) ।.
 
अनुवाद
 
 अब तुम केवल एक पाँव पर खड़े हो, जो तुम्हारा सत्य है और तुम अब किसी न किसी तरह से जी रहे हो। किन्तु छल से फूलने-फलने वाला यह कलह-रूप कलि उस पाँव को भी नष्ट करना चाह रहा है।
 
तात्पर्य
 धर्म के नियम किन्हीं रूढिय़ों या मानवकृत सूत्रों पर नहीं, अपितु चार मूल अनुष्ठानों पर टिके हुए हैं—ये हैं तप, स्वच्छता, दया तथा सत्य। जन-साधारण को बचपन से ही इन सिद्धान्तों का अभ्यास करना सिखाना चाहिए। तपस्या का अर्थ है स्वेच्छा से ऐसी चीजें स्वीकार करना, जो भले ही शरीर के लिए सुखकर न हों, किन्तु आध्यात्मिक अनुभूति के लिए लाभप्रद हों—यथा उपवास करना। मास में दो या चार बार उपवास करना एक प्रकार का तप है, जिसे केवल आध्यात्मिक अनुभूति के लिए करना चाहिए, किसी अन्य कार्य के लिए नहीं—न राजनीतिक, न अन्य कोई। भगवद्गीता (१७.५-६) में आत्म-साक्षात्कार के बजाय अन्य कार्य के लिए किये गये उपवास की भर्त्सना की गई है। इसी प्रकार मन तथा शरीर दोनों के लिए स्वच्छता आवश्यक है। केवल शरीर की स्वच्छता कुछ हद तक सहायक हो सकती है, लेकिन मन की स्वच्छता आवश्यक है और यह भगवान् के यशोगान् से प्राप्त की जाती है। कोई भी व्यक्ति मन के मैल को भगवान् का गुणगान किये बिना साफ नहीं कर सकता। ईश्वरविहीन सभ्यता मन को स्वच्छ नहीं कर सकती, क्योंकि इसे ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं होता और यही एक सादा कारण है कि ऐसी सभ्यता में लोगों में उत्तम गुण नहीं आते, भले ही वे भौतिक दृष्टि से पूर्णतया सुसज्ज हों। हमें वस्तुओं को उनसे परिणाम-स्वरूप कर्म से देखना है। कलियुग में असन्तोष ही मानवीय सभ्यता का परिणाम-स्वरूप कर्मफल है, अतएव सभी मन की शान्ति चाहते रहते हैं। यह मन की शान्ति सत्ययुग में पूर्ण थी, कयोंकि मनुष्यों में उपर्युक्त गुण पाये जाते थे। धीरे धीरे ये गुण घटकर त्रेतायुग में तीन-चौथाई हो गये, द्वापर में वे आधे हुए और इस कलियुग में केवल एक चौथाई रह गये हैं और जिस तरह असत्य का बोलबाला है, उससे इसमें भी कमी आ रही है। अहंकार, चाहे कृत्रिम हो या वास्तविक, तपस्या से प्राप्त फल को विनष्ट करनेवाला है; स्त्री संसर्ग के प्रति अधिक राग होने से स्वच्छता नष्ट होती है और अत्यधिक लत या नशे से दया विनष्ट होती है और अत्यधिक झूठे विज्ञापन से सत्य नष्ट होता है। भागवत धर्म के पुनरुद्धार से ही मानव सभ्यता सभी प्रकार के दोषों से बच सकती है।
 
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