राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किञ्चित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथञ्चन
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धु: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
राजा उवाच—राजा ने कहा; न—नहीं; ते—तुम्हारा; गुडाकेश—अर्जुन; यश:-धराणाम्—यश पाने वालों का; बद्ध- अञ्जले:—हाथ जोडक़र; वै—निश्चय ही; भयम्—भय; अस्ति—है; किञ्चित्—तनिक भी; न—न तो; वर्तितव्यम्—रहने के लिए अनुमति दी जा सकती है; भवता—तुम्हारे द्वारा; कथञ्चन—सभी तरह से; क्षेत्रे—पृथ्वी पर; मदीये—मेरे राज्य में; त्वम्— तुम; अधर्म-बन्धु:—अधर्म के मित्र ।.
अनुवाद
राजा ने इस प्रकार कहा : हम अर्जुन के यश के उत्तराधिकारी हैं और चूँकि तुम हाथ जोडक़र मेरी शरण में आये हो, अतएव तुम्हें अपने प्राणों का भय नहीं होना चाहिए। लेकिन तुम मेरे राज्य में रह नहीं सकते, क्योंकि तुम अधर्म के मित्र हो।
तात्पर्य
सभी प्रकार के अधर्मों के मित्र कलि को क्षमा किया जा सकता है यदि वह आत्म- समर्पण करता है, लेकिन उसे किसी भी दशा में उसे कल्याण-राज्य के किसी भी कोने में नागरिक के रूप में रहने नहीं दिया जा सकता। पाँचों पाण्डव भगवान् कृष्ण के विश्वासपात्र प्रतिनिधि थे, जिनके कारण ही वास्तविक रूप से कुरुक्षेत्र का युद्ध अस्तित्व में आया, लेकिन यह उनके किसी निजी स्वार्थ के लिए नहीं था। वे चाहते थे कि संसार में महाराज युधिष्ठिर तथा उनके वंशज महाराज परीक्षित, जैसे आदर्श राजा राज्य करें, अतएव महाराज परीक्षित जैसे उत्तरदायी राजा, अपने राज्य में अधर्म के मित्र को पाण्डवों की कीर्ति का मूल्य चुकाकर, फूलने-फलने की अनुमति नहीं दे सकते थे। राज्य से भ्रष्टाचार-उन्मूलन करने का यही एकमात्र उपाय है, अन्य कोई उपाय नहीं है। अधर्म के मित्रों को देश से निकाल दिया जाना चाहिए, इससे राज्य भ्रष्टाचार से बच सकेगा।
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