श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  1.17.32 
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे-
ष्वनुप्रवृत्तोऽयमधर्मपूग: ।
लोभोऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भ: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
त्वाम्—तुमको; वर्तमानम्—उपस्थित; नर-देव—हे नर-देवता या राजा; देहेषु—की देह में; अनुप्रवृत्त:—सर्वत्र घटित होकर; अयम्—ये सारे; अधर्म—अधर्म; पूग:—जनमसूह में; लोभ:—लोभ; अनृतम्—असत्य; चौर्यम्—डकैती; अनार्यम्— अशिष्टता; अंह:—विश्वासघात; ज्येष्ठा—दुर्भाग्य; च—तथा; माया—छल; कलह:—झगड़ा; च—तथा; दम्भ:—घमंड ।.
 
अनुवाद
 
 यदि कलि रूपी अधर्म को नर-देवता अर्थात् किसी कार्यकारी प्रशासक के रूप में कर्म करने दिया जाता है, तो निश्चय ही लोभ, असत्य, डकैती, अशिष्टता, विश्वासघात, दुर्भाग्य, कपट, कलह तथा दम्भ जैसे अधर्म का बोलबाला हो जायेगा।
 
तात्पर्य
 किसी भी मत के अनुयायीगण धर्म के सिद्धान्तों जैसे—तप, स्वच्छता, दया तथा सत्य का पालन कर सकते हैं, जैसाकि हम पहले कह चुके हैं। इसके लिए हिन्दू से मुसलमान या ईसाई या अन्य कोई मतावलम्बी बनने की आवश्यकता नहीं है, जिससे की स्वधर्मत्यागी बनकर धर्म के सिद्धान्तों का पालन न करना पड़े। भागवतधर्म, धर्म के सिद्धान्तों का पालन करने के लिए कहता है। धर्म के सिद्धान्त न तो रूढिय़ाँ हैं, न ही किसी मत के नियामक सिद्धान्त हैं। ऐसे नियामक सिद्धान्त सम्बन्धित देश तथा काल के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। मनुष्य को इतना ही देखना है कि धर्म का उद्देश्य पूरा होता है या नहीं। वास्तविक सिद्धान्तों तक पहुँचे बिना रूढिय़ों तथा सूत्रों में चिपके रहना ठीक नहीं है। धर्म-निरपेक्ष राज्य किसी भी विशेष मत के प्रति निष्पक्ष रह सकता है, किन्तु राज्य उपर्युक्त धर्म के सिद्धान्तों के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। लेकिन कलियुग में राजसत्ता के कार्यकारी अध्यक्ष ऐसे धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति उदासीन होंगे, अतएव उनके संरक्षण में धार्मिक सिद्धान्तों के विरोधी यथा लालच, असत्य, छल तथा चोरी स्वाभाविक रूप से पनपेंगे और ऐसे में राज्य में भ्रष्टाचार रोकने के लिए विज्ञापनबाजी के हो-हल्ले का कोई अर्थ नहीं होगा।
 
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