श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  1.17.33 
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञै-
र्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञा: ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; वर्तितव्यम्—बने रहने के योग्य; तत्—अतएव; अधर्म—अधर्म; बन्धो—मित्र; धर्मेण—धर्म से; सत्येन—सत्य से; च—भी; वर्तितव्ये—स्थित होकर; ब्रह्म-आवर्ते—वह स्थान जहाँ यज्ञ सम्पन्न हो; यत्र—जहाँ; यजन्ति—ठीक से करते हैं; यज्ञै:—यज्ञ या भक्ति से; यज्ञ-ईश्वरम्—भगवान् को; यज्ञ—यज्ञ; वितान—फैलते हुए; विज्ञा:—पटु लोग ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव, हे अधर्म के मित्र, तुम ऐसे स्थान में रहने के योग्य नहीं हो जहाँ पर बड़े-बड़े पण्डित पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सत्य तथा धार्मिक नियमों के अनुसार यज्ञ करते हैं।
 
तात्पर्य
 यज्ञेश्वर या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् समस्त प्रकार के याज्ञिक अनुष्ठानों के भोक्ता हैं। ऐसे यज्ञ-अनुष्ठान विभिन्न युगों के लिए शास्त्रों में भिन्न-भिन्न रूप से बताये गये हैं। दूसरे शब्दों में, यज्ञ का अर्थ है भगवान् की श्रेष्ठता का स्वीकार करना और इसके लिए ऐसे कर्म करना, जिनसे भगवान् सभी प्रकार से सन्तुष्ट हों। नास्तिक लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे भगवान् को प्रसन्न करने के लिए कोई यज्ञ नहीं करते। कोई भी स्थान या देश जहाँ भगवान् की श्रेष्ठता स्वीकार की जाय तथा यज्ञ सम्पन्न होता हो, वह ब्रह्मावर्त कहलाता है। विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न देश हैं और इनमें से प्रत्येक देश में परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के यज्ञ हो सकते हैं, लेकिन उन्हें प्रसन्न करने का मुख्य उद्देश्य भागवत में दिया गया है और यह है सत्य। धर्म का मूल सिद्धान्त सत्य है और सभी धर्मों का चरम लक्ष्य भगवान् को प्रसन्न करना है। इस कलियुग में यज्ञ का सबसे महान् सामान्य सूत्र सङ्कीर्तन यज्ञ है। यह मत उन पण्डितों का है, जो यज्ञ विधि का प्रचार करना जानते हैं। भगवान् चैतन्य ने यज्ञ की इस विधि का प्रचार किया और इस श्लोक से यह जाना जा सकता है कि संकीर्तन यज्ञ को कहीं भी कलि को भगाने के लिए तथा मानव समाज को कलि के प्रभाव का शिकार बनने से बचाने के लिए सम्पन्न किया जा सकता है।
 
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