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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  1.17.35 
सूत उवाच
परीक्षितैवमादिष्ट: स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यतासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—श्री सूत गोस्वामी ने कहा; परीक्षिता—महाराज परीक्षित द्वारा; एवम्—इस प्रकार; आदिष्ट:—आदेश दिये जाने पर; स:—वह; कलि:—साक्षात् कलि; जात—हुआ; वेपथु:—कम्पन; तम्—उसको; उद्यत—उठी हुई; असिम्—तलवार; आह—कहा; इदम्—यह; दण्ड-पाणिम्—यमराज, मृत्युरूप को; इव—सदृश; उद्यतम्—प्राय: तैयार ।.
 
अनुवाद
 
 श्री सूत गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार महाराज परीक्षित द्वारा आदेश दिये जाने पर कलि भय के मारे थरथराने लगा। राजा को अपने समक्ष यमराज के समान मारने के लिए उद्यत देखकर कलि ने राजा से इस प्रकार कहा।
 
तात्पर्य
 राजा कलि को तुरन्त मारने के लिए तैयार थे, यदि वह उनकी आज्ञा का पालन न करता; अन्यथा राजा को उसको जीवन दान देने में कोई आपत्ति न थी। कलि ने भी, विभिन्न प्रकार से दण्ड से बचने का उपाय लगाकर, अन्त में निश्चय किया कि अब वह राजा की शरण में जाय, अत: वह जीवन के भय से काँपने लगा। राजा या शासक को इतना प्रबल होना चाहिए कि वह कलि जैसे व्यक्ति के समक्ष काल पुरुष यमराज की भाँति खड़ा रह सके। राजा के आदेश का पालन होना चाहिए, अन्यथा अपराधी का जीवन संकट में रहता है। इसी विधि से राज्य के नागरिकों के सामान्य जीवन में उत्पात करनेवाले कलि पुरुषों के ऊपर शासन जमाया जाता है।
 
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