श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  1.17.37 
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—अत:; मे—मेरा; धर्म-भृताम्—धर्म के समस्त रक्षकों में से; श्रेष्ठ—हे प्रमुख; स्थानम्—स्थान; निर्देष्टुम्—निश्चित करने के लिए; अर्हसि—आप समर्थ हैं; यत्र—जहाँ; एव—निश्चय ही; नियत:—सदैव; वत्स्ये—रह सकूँ; आतिष्ठन्—स्थायी रूप से स्थित; ते—आपका; अनुशासनम्—आपके शासन में ।.
 
अनुवाद
 
 अतएव हे धर्मरक्षकों में श्रेष्ठ, कृपा करके मेरे लिए कोई स्थान निश्चित कर दें, जहाँ मैं आपके शासन के संरक्षण में स्थायी रूप से रह सकूँ।
 
तात्पर्य
 कलि ने महाराज परीक्षित को धर्मरक्षकों में श्रेष्ठ कहकर सम्बोधित किया, क्योंकि राजा उस व्यक्ति को मारने से रुक गये, जिसने उनकी शरण ग्रहण कर ली थी। किसी शरणागत जीव को समस्त सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, भले ही वह शत्रु क्यों न हो। यही धर्म का नियम है। अतएव हम कल्पना कर सकते हैं कि भगवान् अपने शरणागत व्यक्ति को किस तरह का संरक्षण प्रदान करते होंगे, जो उनकी शरण में शत्रुरूप में नहीं, बल्कि सेवक के रूप में आया हो। भगवान् शरणागत की समस्त पापों तथा पापकर्मों के फलों से रक्षा करते हैं। (भगवद्गीता १८.६६)
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥