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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  1.17.38 
सूत उवाच
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानानि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रिय: सूना यत्राधर्मश्चतुर्विध: ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
सूत: उवाच—सूत गोस्वामी ने कहा; अभ्यर्थित:—इस प्रकार से निवेदित; तदा—उस समय; तस्मै—उसको; स्थानानि—स्थानों को; कलये—कलि को; ददौ—अनुमति प्रदान की; द्यूतम्—जुआ खेलना; पानम्—मद्यपान; स्त्रिय:—स्त्रियों से अवैध सम्बन्ध; सूना—पशु बध; यत्र—जहाँ भी; अधर्म:—पाप कर्म; चतु:-विध:—चार प्रकार के ।.
 
अनुवाद
 
 सूत गोस्वामी ने कहा : कलियुग द्वारा इस प्रकार याचना किये जाने पर महाराज परीक्षित ने उसे ऐसे स्थानों में रहने की अनुमति दे दी, जहाँ जुआ खेलना, शराब पीना, वेश्यावृत्ति तथा पशु-वध होते हों।
 
तात्पर्य
 अधर्म के मूल लक्षण यथा अहंकार, वेश्यावृत्ति, मादक द्रव्य-सेवन तथा असत्य भाषण धर्म के चार सिद्धान्तों—तपस्या, स्वच्छता, दया तथा सत्य—के विपरीतार्थी हैं। कलि को जिन चार स्थानों में रहने के लिए राजा ने विशेष रूप से अनुमति दी, वे हैं—द्यूतक्रीड़ा का स्थान, वेश्यालय, मदिरालय तथा कसाईघर।

श्रील जीव गोस्वामी निर्देश देते हैं कि शास्त्रों के सिद्धान्तों विरुद्ध मद्यपान यथा सौत्रामणी यज्ञ, बिना विवाह के स्त्रियों की संगति तथा शास्त्रों के आदेश के विरुद्ध पशुवध, ये अधार्मिक कृत्य हैं। वेदों में, प्रवृत्तों अर्थात् जो भौतिक भोग में लगे हैं तथा निवृतों अर्थात् जो भवबन्धन से मुक्त हैं उनके लिए दो भिन्न-भिन्न प्रकार के आदेश हैं। प्रवृत्तों के लिए वैदिक आदेश यह है कि वे धीरे-धीरे अपने कर्मों को मोक्षमार्ग की ओर नियमित करें। अतएव जो लोग निपट अज्ञानी हैं और सुरा, सुन्दरी तथा मांस के आदी हैं, उन्हें सौत्रामणी यज्ञ करके सुरापान करने, विवाह करके स्त्री का संसर्ग करने तथा यज्ञों द्वारा मांस खाने की कभी कभी अनुमति प्रदान की जाती है। वैदिक साहित्य की ऐसी संस्तुतियाँ एक वर्ग विशेष के लिए हैं, सर्वसाधारण के लिए नहीं। लेकिन चूँकि ये विशिष्ट व्यक्तियों के लिए वैदिक आदेश हैं, अतएव प्रवृत्तों द्वारा किये जानेवाले ऐसे कार्य अधर्म नहीं माने जाते। किसी एक का भोजन दूसरे के लिए विष हो सकता है, इसी तरह जो तमोगुणियों के लिए संस्तुत है, सतोगुणियों के लिए विष बन सकता है। अतएव श्रील जीव गोस्वामी प्रभु पुष्टि करते हैं कि किसी वर्ग विशेष के लोगों के लिए शास्त्रों की संस्तुतियों को कभी अधर्म नहीं मानना चाहिए। लेकिन वस्तुत: ऐसे कार्य अधर्म हैं और उन्हें कभी प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। शास्त्रों की संस्तुतियाँ ऐसे अधर्म को बढ़ावा देने के लिए नहीं हैं, अपितु क्रमश: अधर्म को धर्म के पथ की ओर अग्रसर कराने के निमित्त हैं। महाराज परीक्षित के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए, राज्यों के समस्त कार्यकारी प्रमुखों का यह कर्तव्य है कि वे अपने राज्यों में धर्म के सिद्धान्तों—तप, स्वच्छता, दया तथा सत्य—की स्थापना करें और सभी प्रकार से अधर्म को—अहंकार, अवैध स्त्री-संसर्ग या वेश्यावृत्ति, मादक द्रव्य सेवन तथा असत्य को—रोकें। और अच्छा तो यही होगा कि कलि को द्यूत, सुरापान, वेश्यावृत्ति तथा पशु वध होनेवाले स्थानों में भेज दिया जाय, यदि ऐसे स्थान विद्यमान हों। जो लोग इन अधार्मिक आदतों से ग्रस्त हैं, उन्हें शास्त्रों के आदेशों से सुपथ पर लाया जाय। किसी भी परिस्थिति में उन्हें किसी भी राजसत्ता से प्रोत्साहन नहीं मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, राज्यसत्ता को द्यूतक्रीड़ा, सुरापान, वेश्यावृत्ति तथा असत्य को पूर्णरूपेण बंद करा देना चाहिए। जो राज्य बहुमत द्वारा भ्रष्टाचार का उन्मूलन करना चाहता है, उसे निम्नलिखित विधि से धर्म का प्रवर्तन करना चाहिए—

१. एक मास में यदि अधिक नहीं, तो कम से कम दो दिन अनिवार्य उपवास (तपस्या)। आर्थिक दृष्टि से भी, ऐसे दो दिन के उपवास से राज्य में लाखों टन खाद्यान्न की बचत होगी और इससे नागरिकों के स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

२. तरुण बालकों तथा बालिकाओं की आयु जब क्रमश: चौबीस वर्ष तथा सोलह वर्ष की हो जाय, उनका अनिर्वायत: विवाह होना चाहिए। यदि लडक़ों तथा लड़कियों का वैध विवाह हो चुका हो, तो स्कूलों तथा कालेजों में सह-शिक्षा देने में कोई हानि नहीं है। यदि लडक़ों तथा लड़कियों में घनिष्ठता हो भी जाय, तो अवैध सम्बन्ध होने के पूर्व उनका समुचित रीति से विवाह कर दिया जाय। तलाक ऐक्ट से वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है, अतएव इसको मिटा दिया जाय।

३. राज्य के नागरिक राज्य में या समाज में आध्यात्मिक वातावरण उत्पन्न करने के लिए अपनी- अपनी आय का पचास प्रतिशत तक दान में दें। वे भागवत के सिद्धान्तों का उपदेश (१) कर्मयोग द्वारा अर्थात् भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ही प्रत्येक काम करके, (२) प्रामाणिक पुरुषों या मुक्तात्माओं से श्रीमद्भागवत का नियमित श्रवण करके, (३) घर पर या पूजा स्थलों पर सामूहिक रूप से भगवान् की महिमा का कीर्तन करके, (४) श्रीमद्भागवत के उपदेश में लगे भागवतों की सभी प्रकार से सेवा करके, तथा (५) ईश्वर चेतना से पूरित वातावरण वाले स्थान में रहकर करें। यदि राज्य उपर्युक्त विधि से संचालित हो, तो सहज ही सर्वत्र ईश्वर-चेतना होगी।

सभी प्रकार का जुआ (द्यूत), यहाँ तक कि सट्टेबाजी भी, पतन की ओर ले जानेवाली है और जब राज्य में जुआ खेलने को प्रोत्साहन मिलता है, तो सत्य का सर्वथा लोप हो जाता है। उपर्युक्त आयु से अधिक काल तक, तरुणों तथा तरुणियों को अविवाहित रहने की अनुमति तथा सभी तरह के कसाईघरों को लाइसेंस का, निषेध होना चाहिए। मांसाहारियों को शास्त्रानुमोदित विधि से मांस ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा नहीं। सभी प्रकार का नशा, यहाँ तक कि सिगेरट पीना, तम्बाकू चबाना तथा चाय पीना भी, निषिद्ध होना चाहिए।

 
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