पप्रच्छ रथमारूढ: कार्तस्वरपरिच्छदम् ।
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुक: ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
पप्रच्छ—पूछा; रथम्—रथ पर; आरूढ:—आसीन; कार्तस्वर—सोने से; परिच्छदम्—जटित; मेघ—बादल; गम्भीरया—दोष- मुक्त कराते हुए; वाचा—वाणी; समारोपित—पूरी तरह सज्जित; कार्मुक:—धनुष-बाण ।.
अनुवाद
धनुष-बाण से सज्जित तथा स्वर्ण-जटित रथ पर आसीन, महाराज परीक्षित उससे (शूद्र से) मेघ के समान गर्जना करनेवाली गम्भीर वाणी से बोले।
तात्पर्य
दुष्टों को दण्डित करने के लिए हथियारों से लैस, राजसी प्राधिकार से सम्पन्न, महाराज परीक्षित जैसा शासक या राजा ही कलियुग के एजन्यें को ललकार सकता है। तभी इस अधम युग का सामना कर पाना सम्भव हो पाएगा। ऐसे सशक्त प्रशासनाधिकारी के अभाव में, सदैव शान्ति भंग होती रहती है। चुने हुए दिखावटी प्रशासक, अधम जनता के प्रतिनिधि के रूप में, कभी भी महाराज परीक्षित जैसे बलवान राजा की समता नहीं कर सकते। राजवेष अथवा राजसी-शैली का कोई अर्थ नहीं होता। मनुष्य के कार्य ही हैं, जिनकी गिनती होती है।
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