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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 17: कलि को दण्ड तथा पुरस्कार  »  श्लोक 43-44
 
 
श्लोक  1.17.43-44 
स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥ ४३ ॥
आस्तेऽधुना स राजर्षि: कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वये महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवा: ॥ ४४ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; एष:—यह; एतर्हि—इस समय; अध्यास्ते—शासन कर रहा है; आसनम्—सिंहासन; पार्थिव-उचितम्—राजा के लिए योग्य; पितामहेन—पितामह द्वारा; उपन्यस्तम्—हस्तान्तरित होकर; राज्ञा—राजा द्वारा; अरण्यम्—वन; विविक्षता— इच्छुक; आस्ते—है; अधुना—इस समय; स:—वह; राज-ऋषि:—राजर्षि; कौरव-इन्द्र—कुरु राजाओं में प्रमुख; श्रिया—यश; उल्लसन्—फैलते हुए; गजाह्वये—हस्तिनापुर में; महा-भाग:—सर्वाधिक भाग्यशाली; चक्रवर्ती—सम्राट; बृहत्-श्रवा:— अत्यन्त विख्यात ।.
 
अनुवाद
 
 वे ही सर्वाधिक भाग्यशाली सम्राट महाराज परीक्षित, जिन्हें महाराज युधिष्ठिर ने वन जाते समय हस्तिनापुर का राज्य सौंपा था, अब कुरुवंशी राजाओं के कार्यों से ख्याति प्राप्त करके अत्यन्त सफलतापूर्वक संसार पर शासन कर रहे हैं।
 
तात्पर्य
 नैमिषारण्य के ऋषियों ने महाराज परीक्षित की मृत्यु के कुछ समय बाद ही, दीर्घकालीन् यज्ञोत्सव प्रारम्भ किया था। इस यज्ञ को एक हजार वर्ष तक चलना था और ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में भगवान् कृष्ण के बड़े भाई बलदेव के कुछ समकालीन व्यक्ति यज्ञस्थल पर गये थे। कुछ विद्वानों के मतानुसार वर्तमानकाल का प्रयोग भूतकाल की तुलना में समय की छोटी अवधि को प्रदर्शित करने के लिए भी होता है। उसी अर्थ में यहाँ पर महाराज परीक्षित के शासन के लिए वर्तमान काल का प्रयोग हुआ है। सतत तथ्य के लिए भी वर्तमान काल का प्रयोग किया जा सकता है। महाराज परीक्षित के सिद्धान्तों को अब भी लागु किया जा सकता है और यदि अधिकारियों में संकल्प हो, तो मानव समाज को अब भी सुधारा जा सकता है। अब भी, यदि हम महाराज परीक्षित की भाँति कार्यवाही करने में दृढ़ हो लें, तो कलि द्वारा प्रचारित समस्त अनैतिक कार्यकलापों को समाज से हटा सकते हैं। यद्यपि उन्होंने कलि के लिए कुछ स्थान निश्चित कर दिये थे, किन्तु कलि को संसार भर में ऐसे स्थान नहीं मिल पाये, क्योंकि महाराज परीक्षित इतने सावधान थे कि जुआ खेलने, मद्यपान करने, वेश्यावृति तथा पशुवध के लिए कोई स्थान ही न रहे। आधुनिक प्रशासक राज्य से भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं, लेकिन वे निपट मूर्ख होने के कारण यह भी नहीं जानते कि इसे कैसे किया जाय। वे जुआ खेलने के अड्डे, मदिरा तथा अन्य नशीली औषधियों के लिए स्थान, वेश्यालय, होटल की वेश्यावृत्ति तथा सिनेमा-घर खोलने तथा हर काम में झूठ के लिए लाइसेंस देते हैं और साथ ही राज्य से भ्रष्टाचार भगाना चाहते हैं। वे ईश्वर-चेतना के बिना ईश्वर का राज्य चाहते हैं। भला दो विरोधी बातें एकसाथ कैसे सम्भव हो सकती हैं? यदि हम राज्य से भष्टाचार दूर करना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम समाज को इस तरह संगठित करना होगा कि वह धार्मिक सिद्धान्तों को—तप, स्वच्छता, दया तथा सत्य को—ग्रहण करे और हमें परिस्थिति को अनुकूल बनाने के लिए, जुआ, शराब, वेश्या तथा असत्य के सारे स्थानों को बन्द कर देना पड़ेगा। ये कुछ व्यावहारिक शिक्षाएँ हैं, जो हमें श्रीमद्भागवत से प्राप्त होती हैं।
 
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