श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  1.18.10 
या या: कथा भगवत: कथनीयोरुकर्मण: ।
गुणकर्माश्रया: पुम्भि: संसेव्यास्ता बुभूषुभि: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
या: या:—जो जो; कथा:—कथाएँ; भगवत:—भगवान् के विषय में; कथनीय—मुझे कहनी थीं; उरु-कर्मण:—अद्भुत कर्म करनेवाले की; गुण—दिव्य गुण; कर्म—असामान्य कृत्य; आश्रया:—निहित; पुम्भि:—मनुष्यों द्वारा; संसेव्या:—सुनी जानी चाहिए; ता:—वे सब; बुभूषुभि:—अपना कल्याण चाहनेवालों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने के इच्छुक हैं, उन्हें अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान् के दिव्य कार्यकलापों तथा गुणों से सम्बन्धित सारी कथाएँ अत्यन्त विनीत भाव से श्रवण करनी चाहिए।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य कार्यकलापों, गुणों तथा नामों का नियमपूर्वक श्रवण करने से मनुष्य शाश्वत जीवन की ओर अग्रसर होता है। नियमपूर्वक श्रवण करने का अर्थ होता है, उन्हें धीरे धीरे सही और वास्तविक रूप में जानना और उन्हें इस तरह जानने का अर्थ है, शाश्वत जीवन प्राप्त करना, जिसका उल्लेख भगवद्गीता में हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य यशस्वी कार्यकलाप जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के उपचार करने के लिए संस्तुत औषधि हैं, जिन्हें बद्धजीव भौतिक पुरस्कार समझता है। इस प्रकार जीवन की सिद्ध अवस्था की परिणति मानव-जीवन का लक्ष्य है और दिव्य आनन्द की उपलब्धि है।
 
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