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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  1.18.12 
कर्मण्यस्मिन्ननाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्दपादपद्मासवं मधु ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
कर्मणि—सम्पन्न करने में; अस्मिन्—इस; अनाश्वासे—निश्चित रूप से नहीं; धूम—धुआँ; धूम्र-आत्मनाम्—कलुषित शरीर तथा मन; भवान्—आप; आपाययति—अत्यन्त प्रसन्न बना रहे हैं; गोविन्द—भगवान् के; पाद—पाँव; पद्म-आसवम्—कमल पुष्पों का अर्क; मधु—शहद ।.
 
अनुवाद
 
 हमने अभी-अभी इस सकाम कृत्य, यज्ञ की अग्नि को सम्पन्न करना प्रारम्भ किया है और हमारे कार्य में अनेक अपूर्णताएँ होने के कारण इसके फल की कोई निश्चितता नहीं है। हमारे शरीर धुएँ से काले हो चुके हैं, लेकिन हम भगवान् गोविन्द के चरणकमलों के अमृत रूपी उस मधु से सचमुच तृप्त हैं, जिसे आप हम सबको वितरित कर रहे हैं।
 
तात्पर्य
 नैमिषारण्य के मुनियों ने जो यज्ञाग्नि जलाई थी, वह निश्चय ही धुएँ तथा संशयों से पूर्ण थी, क्योंकि उसमें अनेक दोष थे। पहली कमी यह थी कि इस कलियुग में ऐसा यज्ञ-कार्य सम्पन्न करानेवाले पटु ब्राह्मणों का नितान्त अभाव है। ऐसे यज्ञों में यदि कोई दोष रह जाता है, तो पूरा खेल बिगड़ जाता है और फल भी अनिश्चित रहता है, जैसाकि कृषि-उद्यम में होता है। धान के खेत को जोतने से अच्छा फल तभी मिलता है, जब अच्छी वर्षा हो, अन्यथा फल अनिश्चित है। इसी प्रकार से इस कलियुग में भी किसी भी प्रकार का यज्ञ सम्पन्न कराना अनिश्चित रहता है। कलियुग के निर्लज्ज लोभी ब्राह्मण अबोध जनता को ऐसे अनिश्चित यज्ञों का दिखावा करने के लिए फुसलाते हैं और उन्हें यह शास्त्रीय आदेश नहीं बताते कि कलियुग में कोई भी सकाम यज्ञोत्सव सम्भव नहीं, किन्तु इस युग में केवल एक ही यज्ञ सम्भव है और वह है भगवन्नाम का सामूहिक कीर्तन। सूत गोस्वामी एकत्र हुए मुनियों के समक्ष भगवान् के दिव्य कार्यकलाप सुना रहे थे और वे सब इन दिव्य कार्यकलापों के सुनने के फल का अनुभव कर रहे थे। कोई भी इसे व्यावहारिक रूप से उसी तरह अनुभव कर सकता है, जिस प्रकार भोजन करके उसके फल का अनुभव किया जा सकता है। आध्यात्मिक अनुभूति इसी प्रकार कार्य करती है।

नैमिषारण्य के मुनि यज्ञ की अग्नि से उठनेवाले धुएँ से कष्ट पा रहे थे और फल के विषय में भी संशयपूर्ण थे, किन्तु सूत गोस्वामी जैसे अनुभूत व्यक्ति से सुनने के कारण वे पूरी तरह से संतुष्ट हुए थे। ब्रह्मवैवर्त पुराण में विष्णु शिवजी से कहते हैं कि कलियुग में लोग विविध प्रकार की चिन्ताओं से घिरे होने के कारण सकाम कर्म तथा दार्शनिक चिन्तन में व्यर्थ ही श्रम करेंगे, किन्तु यदि वे भक्तिमय सेवा में लगें तो परिणाम अधिक निश्चित होगा और शक्ति का भी क्षय नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, भगवान् की भक्तिमय सेवा के बिना, आध्यात्मिक साक्षात्कार के लिए या तो भौतिक लाभ के लिए जो कुछ भी किया जायेगा, वह फलदायी नहीं हो सकता।

 
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