श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  1.18.14 
को नाम तृप्येद् रसवित्कथायां
महत्तमैकान्तपरायणस्य ।
नान्तं गुणानामगुणस्य जग्मु-
र्योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्या: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
क:—कौन है, वह; नाम—विशेष रूप से; तृप्येत्—पूरा सन्तोष प्राप्त कर ले; रस-वित्—अमृत-रस का आस्वाद करने में पटु; कथायाम्—कथाओं में; महत्-तम—जीवों में सबसे महान्; एकान्त—एकमात्र; परायणस्य—आश्रय का; न—कभी नहीं; अन्तम्—अन्त; गुणानाम्—गुणों का; अगुणस्य—दिव्य का; जग्मु:—निश्चित कर सके; योग-ईश्वरा:—योग-शक्ति के स्वामी; ये—जो; भव—शिवजी; पाद्म—ब्रह्माजी; मुख्या:—प्रमुख ।.
 
अनुवाद
 
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण (गोविन्द) समस्त महान् जीवों के एकमात्र आश्रय हैं और उनके दिव्य गुणों का मापन शिव तथा ब्रह्मा जैसे यौगिक शक्तियों के स्वामीयों द्वारा भी नहीं किया जा सकता। तो भला जो रसास्वादन में पटु है, वह क्या कभी उनकी कथाओं के श्रवण द्वारा पूरी तरह तृप्त हो सकता है?
 
तात्पर्य
 शिवजी तथा ब्रह्माजी दो प्रधान देवता हैं। वे योगशक्ति से परिपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, शिवजी ने उस विष का सागर पी लिया, जिसकी एक बूँद ही सामान्य जीव को मारने के लिए पर्याप्त थी। इसी प्रकार ब्रह्माजी ने, शिवजीसमेत, अनेक देवताओं की सृष्टि की। अतएव ये दोनों ईश्वर अथवा ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। किन्तु वे परम शक्तिमान नहीं हैं। परम शक्तिमान तो गोविन्द अथवा श्रीकृष्ण हैं। वे दिव्य हैं और उनके दिव्य गुणों का मापन शिव तथा ब्रह्मा जैसे शक्तिशाली ईश्वरों द्वारा भी नहीं किया जा सकता। अतएव भगवान् कृष्ण बड़े से बड़े जीव के एकमात्र आश्रय हैं। ब्रह्मा की गिनती जीवों में की जाती है, किन्तु वे हम सबों से महानतम हैं। तो फिर महानतम जीव भगवान् कृष्ण की दिव्य कथाओं के प्रति इतना आसक्त क्यों है? इसलिए कि वे समस्त आनन्द के आगार हैं। हर व्यक्ति हर वस्तु का कुछ न कुछ आस्वाद लेना चाहता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लगा रहता है, वह उसी में असीम आनन्द प्राप्त करता है। भगवान् असीम हैं और उनके नाम, गुण, लीलाएँ, पार्षद, विविधता आदि अनन्त हैं और जो इनका आस्वाद करते हैं, वे असीम रूप से ऐसा करते हुए भी तृप्ति का अनुभव नहीं करते। इस तथ्य की पुष्टि पद्मपुराण से होती है—

रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दचिदात्मनि।

इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥

“योगीजन परम सत्य से असीम दिव्य आनन्द प्राप्त करते हैं, इसीलिए परम सत्य भगवान् राम भी कहलाते हैं।”

ऐसी दिव्य वार्ताओं का कोई अन्त नहीं है। संसारी मामलों में तृप्ति का नियम होता है, लेकिन अध्यात्म में ऐसी तृप्ति नहीं है। सूत गोस्वामी नैमिषारण्य के ऋषियों के समक्ष भगवान् कृष्ण की कथा को चालू रखना चाह रहे थे और ऋषियों ने भी उनसे लगातार सुनते रहने की अपनी इच्छा व्यक्त की। चूँकि भगवान् दिव्य हैं और उनके गुण दिव्य हैं, अतएव ऐसी वार्ताएँ शुद्ध श्रोताओं के ग्राही भाव को बढ़ाती हैं।

 
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