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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  1.18.17 
तन्न: परं पुण्यमसंवृतार्थ-
माख्यानमत्यद्भुतयोगनिष्ठम् ।
आख्याह्यनन्ताचरितोपपन्नं
पारीक्षितं भागवताभिरामम् ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—अतएव; न:—हमें; परम्—परम; पुण्यम्—पवित्र करनेवाला; असंवृत-अर्थम्—यथारूप; आख्यानम्—वार्ता; अति— अत्यन्त; अद्भुत—आश्चचर्यजनक; योग-निष्ठम्—भक्तियोग में दृढ़; आख्याहि—कहिये; अनन्त—अनन्त; आचरित— कार्यकलाप; उपपन्नम्—पूर्ण; पारीक्षितम्—महाराज परीक्षित से कहे गये; भागवत—शुद्ध भक्तों के; अभिरामम्—विशेषतया अत्यन्त प्रिय ।.
 
अनुवाद
 
 अत: कृपा करके हमें अनन्त की कथाएँ सुनाएँ, क्योंकि वे पवित्र करनेवाली तथा सर्वश्रेष्ठ हैं। इन्हें ही महाराज परीक्षित को सुनाया गया था और वे भक्तियोग से परिपूर्ण होने के कारण शुद्ध भक्तों को अत्यन्त प्रिय हैं।
 
तात्पर्य
 महाराज परीक्षित को जो सुनाया गया था और जो शुद्ध भक्तों को अत्यन्त प्रिय है, वह श्रीमद्भागवत है। श्रीमद्भागवत मुख्यत: परम अनन्त के कार्यकलापों की कथाओं से पूर्ण है, अतएव यह भक्तियोग अर्थात् भगवान् की भक्तिमय सेवा का विज्ञान है। इस प्रकार यह पर अर्थात् सर्वोपरि है, क्योंकि समस्त ज्ञान तथा धर्म से समृद्ध होने पर भी, यह भगवान् की भक्तिमय सेवा में विशेष रूप से समृद्ध है।
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥