श्री सूत गोस्वामी ने कहा : हे ईश्वर, यद्यपि हम मिश्र (संकर) जाति में उत्पन्न हैं, फिर भी हमें ज्ञान में उन्नत उन महापुरुषों की सेवा करने तथा उनका अनुगमन करने से ही जन्म अधिकार प्राप्त हो गया। ऐसे महापुरुषों से बातचीत करने से ही मनुष्य निम्नकुल में जन्म होने के कारण उत्पन्न अवगुणों से तुरन्त ही निर्मल हो जाता है।
तात्पर्य
सूत गोस्वामी का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआ था। वे एक मिश्र जाति के परिवार (विलोमज) में या असंस्कृत निम्नकुल में जन्मे थे। किन्तु महापुरुषों की संगति से यथा श्री शुकेदव गोस्वामी तथा नैमिषारण्य के महर्षियों की संगति से, निम्नकुल में जन्म होने की उनकी अयोग्यता मिट चुकी थी। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु वैदिक प्रथाओं का पालन करने में इसी सिद्धान्त का पालन करते थे और अपनी दिव्य संगति से उन्होंने अनेक निम्नकुल में जन्मे या जन्म अथवा कर्म से अयोग्य ठहराये गये व्यक्तियों को भक्ति का पद दिलाया और उन्हें आचार्य या अधिकारी पद पर स्थापित किया। वे स्पष्ट कहते थे कि कोई भी मनुष्य, चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या शूद्र, गृहस्थ हो या संन्यासी, यदि वह कृष्ण के विज्ञान में पारंगत है, तो उसे आचार्य या गुरु के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
सूत गोस्वामी ने शुकदेव तथा व्यासदेव जैसे महर्षियों तथा महापुरुषों से कृष्ण का विज्ञान सीखा था और वे इतने सुयोग्य थे कि नैमिषारण्य के मुनि भी उनसे श्रीमद्भागवत के रूप में कृष्ण का विज्ञान उत्सुकता से सुनना चाह रहे थे। इस प्रकार श्रवण करने तथा उपदेश देने द्वारा उन्हें महापुरुषों की दोहरी संगति प्राप्त हुइ थी। दिव्य विज्ञान या कृष्ण का विज्ञान अधिकारियों से सीखना पड़ता है और जब कोई इस विज्ञान का उपदेश देता है, तो वह और भी योग्य बनता जाता है। इस प्रकार सूत गोस्वामी को दोनों लाभ प्राप्त थे, अतएव निम्न कुल में जन्म लेने के समस्त अवगुणों तथा मानसिक क्लेशों से वे पूर्ण रूप से मुक्त थे। यह श्लोक निश्चित रूप से सिद्ध करता है कि श्रील शुकेदव गोस्वामी ने, न तो सूत गोस्वामी को निम्नकुल में जन्म लेने से अध्यात्म विज्ञान की शिक्षा देने से इनकार किया, न ही नैमिषारण्य के मुनियों ने उनके उपदेश सुनने से इनकार किया। इसका अर्थ यह होता है कि हजारों वर्ष पूर्व, निम्नकुल में जन्म होने से किसी को अध्यात्म विज्ञान सीखने या उपदेश देने पर कोई प्रतिबन्ध न था। हिन्दू समाज में तथाकथित जाति प्रथा की कट्टरता पिछले सौ वर्षों में प्रमुख बनी है, जब द्विजबन्धुओं अर्थात् उच्चजाति के कुल में जन्मे अयोग्य मनुष्यों की संख्या बढ़ गई। भगवान् श्री चैतन्य ने मूल वैदिक पद्धति को फिर से जीवित किया और उन्होंने ठाकुर हरिदास को नामाचार्य अर्थात् ‘भगवान् के पवित्र नाम के महिमा का प्रचार करने वाले अधिकारी’ का पद प्रदान किया, यद्यपि श्रील हरिदास ठाकुर का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था।
भगवान् के शुद्ध भक्तों का ऐसा प्रताप होता है। गंगाजल को शुद्ध माना जाता है और जो कोई गंगा के जल में स्नान करता है, वह शुद्ध हो जाता है। किन्तु जहाँ तक भगवान् के महान् भक्तों का सम्बन्ध है, वे तो निम्नकुल में उत्पन्न अधम लोगों को अपने दर्शन से ही शुद्ध कर सकते हैं, तो फिर उनका संग करने के बारे में तो कहना ही क्या! भगवान् चैतन्य महाप्रभु संसार के दूषित वातावरण को संसार भर में योग्य प्रचारकों को भेज कर शुद्ध बनाना चाहते थे और अब यह भारतीयों का कर्तव्य है कि इस कार्य को वैज्ञानिक ढंग से हाथों में लें और सर्वोत्तम मानव कल्याण का कार्य करें। आधुनिक पीढ़ी के मानसिक रोग शारीरिक रोगों से अधिक गम्भीर हैं, अतएव यह उपयुक्त समय है कि देर लगाये बिना संसार भर में श्रीमद्भागवत के प्रचार का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाय। महत्तमानाम् अभिधान का अर्थ है महान् भक्तों का शब्दकोश या महान् भक्तों की वाणी से युक्त पुस्तक। महान् भक्तों की तथा भगवान् की वाणी का ऐसा कोश, वेद तथा अन्य सम्बद्ध ग्रंथ, विशेष रूप से श्रीमद्भागवत में है।
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