श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  1.18.2 
ब्रह्मकोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात्प्राणविप्लवात् ।
न सम्मुमोहोरुभयाद् भगवत्यर्पिताशय: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
ब्रह्म-कोप—ब्राह्मण के क्रोध से; उत्थितात्—उत्पन्न; य:—जो था; तु—लेकिन; तक्षकात्—तक्षक सर्प द्वारा; प्राण विप्लवात्—जीवन-क्षय से; न—कभी नहीं; सम्मुमोह—अभिभूत थे; उरु-भयात्—घोर भय; भगवति—भगवान् में; अर्पित— शरणागत; आशय:—चेतना ।.
 
अनुवाद
 
 इसके अतिरिक्त, महाराज परीक्षित स्वेच्छा से सदैव भगवान् के शरणागत रहते थे, अतएव वे उडऩे वाले सर्प के भय से, जो उन्हें ब्राह्मण बालक के कोपभाजन बनने के कारण काटनेवाला था, न तो भयभीत थे, न अभिभूत थे।
 
तात्पर्य
 भगवान् का आत्म-शरणागत भक्त नारायण-परायण कहलाता है। ऐसा व्यक्ति किसी स्थान या व्यक्ति से, यहाँ तक कि मृत्यु से भी भयभीत नहीं होता। उसके लिए परमेश्वर से बढक़र कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं होता। इस तरह वह स्वर्ग या नरक को एक समान ही महत्त्व देता है। वह अच्छी तरह जानता है कि स्वर्ग तथा नरक दोनों ही भगवान् की सृष्टियाँ हैं और इसी तरह जीवन तथा मृत्यु भी भगवान् द्वारा उत्पन्न की गई जीवन की विभिन्न दशाएँ हैं। किन्तु सभी दशाओं में तथा सभी परिस्थितियों में नारायण का स्मरण आवश्यक है। जो नारायण-परायण है, वह इसका निरन्तर अभ्यास करता है। महाराज परीक्षित ऐसे ही शुद्ध भक्त थे। उन्हें एक अनुभवहीन ब्राह्मण बालक ने त्रुटिवश शाप दे दिया था, क्योंकि वह कलि के वशीभूत था, और महाराज परीक्षित ने इस शाप को नारायण द्वारा प्रेषित समझा। वे जानते थे कि जब वे माता के गर्भ में जलाये गये थे, तो नारायण (कृष्ण) ने ही उन्हें बचाया था और यदि उन्हें साँप के काटने से मरना है, तो यह भी भगवान् की कृपा से होगा। भक्त कभी भी भगवान् की इच्छा के विरुद्ध नहीं जाता; भगवान् द्वारा भेजी गई कोई भी वस्तु भक्त के लिए वरदान होती है। अतएव महाराज परीक्षित ऐसी बातों से न तो भयभीत थे, न ही मोह-ग्रस्त थे। यह भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है।
 
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