श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  1.18.22 
यत्रानुरक्ता: सहसैव धीरा
व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम् ।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं
यस्मिन्नहिंसोपशम: स्वधर्म: ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
यत्र—जिनके प्रति; अनुरक्ता:—दृढ़ता से आसक्त; सहसा—एकाएक; एव—निश्चय ही; धीरा:—आत्मसंयमी; व्यपोह्य—एक ओर छोडक़र; देह—स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म मन; आदिषु—से सम्बन्धित; सङ्गम्—आसक्ति; ऊढम्—लगे हुए; व्रजन्ति—जाते हैं; तत्—वह; पारम-हंस्यम्—सिद्धि की सर्वोच्च अवस्था; अन्त्यम्—तथा उसके परे; यस्मिन्—जिसमें; अहिंसा—अहिंसा; उपशम:—तथा वैराग्य; स्व-धर्म:—परिणामी वृत्ति ।.
 
अनुवाद
 
 परम भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त आत्म-संयमी पुरुष, स्थूल शरीर तथा सूक्ष्म मन सहित, एकाएक भौतिक आसक्ति से ओतप्रोत संसार को त्याग सकते हैं और जीवन के संन्यास आश्रम की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने के लिए बाहर चले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप अहिंसा तथा वैराग्य उत्पन्न होते हैं।
 
तात्पर्य
 केवल आत्म-संयमी व्यक्ति ही धीरे-धीरे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति अनुरक्त हो सकता है। आत्म-संयमी का अर्थ है, जो आवश्यकता से अधिक इन्द्रियभोग में लिप्त न हो। और जो लोग आत्म-संयमी नहीं हैं, वे इन्द्रियभोग में लिप्त हो जाते हैं। शुष्क दार्शनिक चिन्तन मन का सूक्ष्म इन्द्रियभोग है। इन्द्रियभोग मनुष्य को अंधकार के मार्ग की ओर ले जाता है। जो लोग आत्म-संयमी हैं, वे भौतिक अस्तित्व के बद्ध जीवन से मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इसीलिए वेदों का आदेश है कि मनुष्य को अंधकार के मार्ग पर नहीं जाना चाहिए, अपितु प्रकाश के मार्ग अथवा मुक्ति की ओर अग्रसर होना चाहिए। आत्म-संयम इन्द्रियों को कृत्रिम ढंग से भौतिक भोग से रोकने से नहीं आता, अपितु अपनी शुद्ध इन्द्रियों को भगवान् की दिव्य सेवा में लगाकर परमेश्वर में वास्तविक रूप से अनुरक्त होने से आता है। इन्द्रियों को बलपूर्वक दमित नहीं किया जा सकता, अपितु उन्हें उचित कार्य में लगाया जा सकता है। अतएव शुद्ध इन्द्रियाँ सदैव भगवान् की दिव्य सेवा में लगी रहती हैं। इन्द्रियों को संलग्न रखने की यह सिद्धावस्था भक्तियोग कहलाती है। अतएव जो लोग भक्तियोग के साधनों में अनुरक्त हैं, वे वास्तव में आत्म-संयमी हैं और वे भगवान् की सेवा करने के लिए अपना घरेलू या शारीरिक मोह सहसा छोड़ सकते हैं। यह परमहंस अवस्था कहलाती है। हंस दूध तथा पानी के मिश्रण में से केवल दूध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जो माया की सेवा न करके, भगवान् की सेवा करना अपनाते हैं, वे परमहंस कहलाते हैं। उनमें स्वभावत: सारे सद्गुण यथा निरभिमानता, अहंकार से मुक्ति, अहिंसा, धैर्य, सरलता, विनयशीलता, पूजा, भक्ति तथा निष्ठा पाये जाते हैं। ये सारे दैवी गुण भगवद्भक्त में सहज रूप से पाये जाते हैं। ऐसे परमहंस, जो भगवान् की सेवा में ही लगे रहते हैं, अत्यन्त दुर्लभ हैं। यहाँ तक कि मुक्तात्माओं में भी ये दुर्लभ हैं। वास्तविक अहिंसा का अर्थ है, द्वेष से मुक्त होना। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने सहभागी जीव से द्वेष रखता है। किन्तु एक पूर्ण-परमहंस भगवान् की सेवा में संलग्न रहने के कारण पूर्ण रूप से द्वेषरहित होता है। वह प्रत्येक प्राणी को परमेश्वर से सम्बन्धित समझते हुए प्यार करता है। वास्तविक वैराग्य का अर्थ है, ईश्वर पर पूर्ण रूप से आश्रित होना। प्रत्येक जीव किसी अन्य पर आश्रित है, क्योंकि उसे ऐसा ही बनाया गया है। वास्तव में हर कोई भगवान् की कृपा पर आश्रित है, किन्तु जब वह भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भूल जाता है, तो वह प्रकृति की दशाओं पर निर्भर रहने लगता है। वैराग्य का अर्थ है भौतिक प्रकृति पर निर्भरता का परित्याग और इस प्रकार भगवान् की कृपा पर पूर्ण रूप से आश्रित होना। वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ है, पदार्थ पर निर्भर न रहकर भगवान् की कृपा पर पूर्ण श्रद्धा। यह परमहंस अवस्था भक्तियोग की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है, जो परमेश्वर के लिए की जाने वाली भक्तिमय सेवा की विधि है।
 
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