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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  1.18.23 
अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्भ‍ि-
राचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान् ।
नभ: पतन्त्यात्मसमं पतत्‍त्रिण-
स्तथा समं विष्णुगतिं विपश्चित: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अहम्—मैं; हि—निश्चय ही; पृष्ट:—आपके द्वारा पूछा गया; अर्यमण:—सूर्य के समान शक्तिशाली; भवद्भि:—आपके द्वारा; आचक्षे—वर्णन करे; आत्म-अवगम:—जहाँ तक मेरी जानकारी है; अत्र—यहाँ पर; यावान्—जहाँ तक; नभ:—आकाश; पतन्ति—उड़ते हैं; आत्म-समम्—जहाँ तक हो सकता है; पतत्त्रिण:—पक्षी; तथा—उसी प्रकार; समम्—वैसे ही; विष्णु- गतिम्—विष्णु का ज्ञान; विपश्चित:—विद्वानों के माध्यम से भी ।.
 
अनुवाद
 
 हे सूर्य के समान शक्तिशाली ऋषियों, मैं आपको अपने ज्ञान के अनुसार विष्णु की दिव्य लीलाओं के वर्णन करने का प्रयत्न करूँगा। जिस प्रकार पक्षी आकाश में उतनी ही दूर तक उड़ते हैं, जितनी उनमें क्षमता होती है, उसी प्रकार विद्वान भक्त-गण भगवान् की लीलाओं का वर्णन अपनी-अपनी अनुभूति के अनुसार करते हैं।
 
तात्पर्य
 परम पूर्ण सत्य अनन्त है। कोई भी जीव अपनी सीमित क्षमता से अनन्त को नहीं जान सकता। भगवान् निराकार, साकार तथा अर्न्तयामी हैं। अपने निराकार पक्ष से वे सर्वव्यापी ब्रह्म हैं, तो अपने अन्तर्यामी स्वरूप से वे परमात्मा रूप में सभी जीवों के हृदय में विराजमान रहते हैं और अपने परम साकार रूप से वे अपने शुद्ध भक्त रूप में भाग्यशाली पार्षदों द्वारा उनकी दिव्य प्रेममयी सेवा के विषय बनते हैं। इन विभिन्न स्वरूपों में भगवान् की लीलाओं का आंशिक अनुमान बड़े-बड़े विद्वान भक्त ही लगा पाते हैं। अतएव श्रील सूत गोस्वामी ने अपनी अनुभूति के अनुसार भगवान् की लीलाओं का वर्णन करने का जो कार्यभार अपने ऊपर लिया है, वह उचित ही है। वास्तव में स्वयं भगवान् ही अपना वर्णन कर सकते हैं और उनके विद्वान भक्त भी उनका उतना ही वर्णन कर सकते हैं, जितने के लिए वे उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं।
 
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