मुनि की इन्द्रियाँ, श्वास, मन तथा बुद्धि सभी ने भौतिक कार्यकलाप बन्द कर दिये थे और वे तीनों (जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्ति) स्थितियों से अलग होकर, परम पूर्ण के समान गुणात्मक दृष्टि से दिव्य पद प्राप्त करके, समाधि में स्थित थे।
तात्पर्य
ऐसा प्रतीत होता है कि वे मुनि, जिनके आश्रम में राजा ने प्रवेश किया था, योग समाधि में थे, यह दिव्य पद तीन विधियों से प्राप्त किया जाता है : ज्ञान अर्थात् सैद्धान्तिक अध्यात्म ज्ञान से, योग अर्थात् शरीर के क्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक कार्यों को वश में करके समाधि की वास्तविक अनुभूति से तथा भक्ति योग की अत्यन्त स्वीकृत विधि अर्थात् इन्द्रियों को भगवान् की भक्तिमय सेवा में लगाने से। भगवद्गीता से भी हमें पदार्थ से जीव तक की अनुभूति के क्रमिक विकास का परिचय प्राप्त होता है। हमारे भौतिक मन तथा शरीर, जीव अर्थात् आत्मा से विकसित होते हैं और हम पदार्थ के तीन गुणों के प्रभाव में आकर अपनी असली पहचान (स्वरूप) को भूल जाते हैं। ज्ञानयोग सैद्धान्तिक रूप से आत्मा की वास्तविकता के विषय में चिन्तन है। लेकिन भक्तियोग आत्मा को सचमुच कर्म में लगाता है। पदार्थ की अनुभूति की अवस्था को पार करने के बाद इन्द्रियों की अधिक सूक्ष्म अवस्थाएं प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों की अवस्था को सूक्ष्मतर मन द्वारा, और मन को प्राण की गतिविधियाँ द्वारा और फिर उसे क्रमश: बुद्धि द्वारा पार कर दिया जाता है। बुद्धि से आगे, जीवंत आत्मा को योग पद्धति की यांत्रिक क्रियाओं के द्वारा अथवा इन्द्रियों को वश में करके ध्यान का अभ्यास, प्राणायाम साधना तथा दिव्य पद तक उठने के लिए बुद्धि के प्रयोग के द्वारा अनुभव किया जाता है। यह समाधि शरीर की सारी भौतिक क्रियाओं को रोक देती है। राजा ने मुनि को इसी अवस्था में देखा। उन्होंने मुनि को निम्न प्रकार से भी देखा।
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