वैदिक नियमों की संहिता में स्वागत करने का नियम यह है कि यदि घर पर शत्रु भी आये जाये, तो उसका सभी प्रकार से सम्मान किया जाना चाहिए। उसे यह सोचने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए कि वह अपने शत्रु के घर आया है। जब भगवान् कृष्ण, अर्जुन तथा भीमसेन के साथ मगध के राजा जरासन्ध के यहाँ पहुँचे, तो उसने सम्माननीय शत्रुओं का राजकीय स्वागत किया। अतिथि शत्रु भीम को जरासन्ध से लडऩा था, फिर भी उसका शानदार सत्कार किया गया। रात्रि में वे मित्रों तथा अतिथियों के रूप में परस्पर बातें करते और दिन में जान की बाजी लगाकर मल्लयुद्ध करते। यह था सत्कार का नियम। सत्कार नियमों में यह आदेश है कि जिस निर्धन व्यक्ति के पास अतिथि को देने के लिए कुछ भी न हो, उसे चाहिए कि बैठने के लिए चटाई दे, पीने के लिए एक गिलास जल दे तथा कुछ मधुर वचन कहे। अतएव अतिथि के सत्कार में, चाहे वह मित्र हो या शत्रु, कोई खर्च नहीं लगता। यह तो शिष्टाचार की बात है।
जब महाराज परीक्षित शमीक ऋषि के द्वार में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने ऋषि द्वारा राजोचित सत्कार की आशा नहीं की थी, क्योंकि वे जानते थे कि ऋषि-मुनि भौतिक दृष्टि से धन सम्पन्न नहीं होते। लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि उन्हें बैठने का आसन, एक गिलास जल तथा कुछ मीठे वचन भी नहीं मिल पायेंगे। वे, न तो सामान्य अतिथि थे, न ही ऋषि के शत्रु थे, अतएव ऋषि के इस शुष्क सत्कार से राजा को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। वस्तुत: जब राजा को जल की अत्यन्त आवश्यकता थी, तो उनका क्रुद्ध होना उचित था। ऐसी विकट स्थिति में क्रुद्ध होना राजा के लिए अस्वाभाविक न था, लेकिन चूँकि राजा स्वयं किसी महान् सन्त से कम न थे, अतएव उनका क्रुद्ध होना और फिर कार्यवाही करना आश्चर्यजनक था। अत: यह स्वीकार करना चाहिए कि भगवान् की सर्वोपरि इच्छा से ऐसा होना ही था। राजा भगवान् के महान् भक्त थे और ऋषि भी राजा के ही समान थे। लेकिन भगवान् की इच्छा थी कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हों कि जिनसे राजा को अपने पारिवारिक तथा सरकारी कार्यों से अनासक्त होकर भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों में पूर्ण रूप से आत्म-समर्पित होना पड़े। कभी-कभी कृपामय भगवान् अपने शुद्ध भक्तों के लिए ऐसी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं, जिससे वे उन्हें भौतिक संसाररूपी दलदल से अपने पास खींच सकें। लेकिन ऊपर से सारी परिस्थितियाँ भक्तों के लिए अत्यन्त निराशाजनक सी लगती हैं। भगवान् के भक्त सदैव भगवान् के संरक्षण में रहते हैं और किसी भी दशा में, चाहे निराशा हो या सफलता, भगवान् भक्तों के परम पथ प्रदर्शक रहते हैं। अतएव शुद्ध भक्त, निराशा की, सारी परिस्थितियों को भगवान् के आशीर्वाद के रूप में ग्रहण करते हैं।