तत्पश्चात्, अपने समस्त संगियों को छोडक़र, राजा ने शिष्य-रूप में व्यास के पुत्र (शुकेदव गोस्वामी) की शरण ग्रहण की और इस प्रकार वे भगवान् की वास्तविक स्थिति को समझ सके।
तात्पर्य
यहाँ पर अजित शब्द महत्त्वपूर्ण है। भगवान् श्रीकृष्ण अजित अर्थात् न जीते जा सकनेवाले कहलाते हैं और वे हर प्रकार से अजित हैं। कोई उनकी वास्तविक स्थिति को नहीं जान सकता। वे ज्ञान द्वारा भी अजित हैं। हमने उनके धाम, गोलोक वृन्दावन के विषय में सुना है, लेकिन ऐसे अनेक पंडित हैं, जो इस धाम की कई तरह से व्याख्या करते हैं। किन्तु शुकेदव गोस्वामी जैसे गुरु की कृपा से, जिनकी शरण राजा ने अत्यन्त विनीत शिष्य-रूप में ग्रहण की, मनुष्य भगवान् की वास्तविक स्थिति, उनके सनातन धाम तथा उस धाम की दिव्य साज-सामग्री को समझ सकता है। भगवान् की दिव्य स्थिति को जानते हुए तथा उस दिव्य विधि से, जिससे उस दिव्य धाम तक पहुँचा जा सकता है, राजा अपने चरम गन्तव्य के विषय में आश्वस्त थे और इसे जान लेने के कारण वे प्रत्येक भौतिक वस्तु को, यहाँ तक कि अपने भौतिक शरीर को भी किसी आसक्ति के बिना छोड़ सकते थे। भगवद्गीता में कहा गया है—परं दृष्ट्वा निवर्तते—परम अर्थात् वस्तुओं के श्रेष्ठ गुण को देख लेने पर मनुष्य सारी भौतिक आसक्ति छोड़ सकता है। भगवद्गीता से हम उन भगवान् की शक्ति के गुण को समझते हैं, जो भौतिक शक्ति के गुण से श्रेष्ठ है और शुकदेव गोस्वामी जैसे प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु की कृपा से भगवान् की इस उच्चतर शक्ति के प्रत्येक पक्ष को जाना जा सकता है, जिससे भगवान् अपने शाश्वत नाम गुण, लीलाओं, साज-सामग्री तथा विविधता को प्रकट करते हैं। भगवान् की इस उच्चतर शक्ति को समझे बिना, कोई कितना ही परम सत्य के वास्तविक स्वभाव के विषय में सैद्धान्तिक चिन्तन क्यों न करे, भौतिक शक्ति को छोड़ नहीं पाता। भगवान् कृष्ण की कृपा से, महाराज परीक्षित को शुकदेव गोस्वामी जैसे महापुरुष की अनुकंपा प्राप्त हुइ थी, अतएव वे अजित भगवान् की वास्तविक स्थिति को समझ पाये थे। वैदिक साहित्य से भगवान् को खोज निकालना अत्यन्त कठिन है, किन्तु शुकदेव गोस्वामी जैसे मुक्त भक्त की कृपा से उन्हें समझ पाना अत्यन्त सरल है।
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