हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  1.18.30 
स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा ।
विनिर्गच्छन्धनुष्कोट्या निधाय पुरमागत: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
स:—राजा; तु—किसी; ब्रह्म-ऋषे:—ब्राह्मण ऋषि के; अंसे—कंधे पर; गत-असुम्—निर्जीव; उरगम्—सर्प; रुषा—क्रोध में; विनिर्गच्छन्—जाते हुए; धनु:-कोट्या—धनुष के अग्रभाग से; निधाय—रखकर; पुरम्—महल को; आगत:—वापस आये ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार अपमानित होकर, राजा ने लौटते समय अपने धनुष से एक मृत सर्प उठाया और उसे क्रोधवश मुनि के कंधे पर रख दिया; तब वे अपने राजमहल को लौट आये।
 
तात्पर्य
 राजा ने मुनि के साथ ‘जैसे को तैसा’ का व्यवहार किया; यद्यपि वे इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण कार्यवाही के अभ्यस्त न थे। भगवद् इच्छा से, राजा ने लौटते समय, अपने समक्ष एक मरा हुआ सर्प देखा और सोचा कि जिस मुनि ने उन्हें इस प्रकार उपेक्षित समझा है, यदि उनके गले में मृत सर्प की माला पहना दी जाय, तो वे भी इसी प्रकार उपेक्षित हो जाय। सामान्य व्यवहार में, यह अधिक अस्वाभाविक न था, लेकिन एक ब्राह्मण मुनि के साथ महाराज परीक्षित का यह व्यवहार निश्चित रूप से अभूतपूर्व था। यह भगवान् की इच्छा से ही हुआ।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥