एष:—यह; किम्—क्या; निभृत-अशेष—ध्यानमग्न मुद्रा; करण:—इन्द्रियाँ; मीलित—बन्द, मुँदी; ईक्षण:—आँखें; मृषा— झूठी; समाधि:—समाधि; आहो—रहता है; स्वित्—यदि ऐसा है; किम्—या तो; नु—लेकिन; स्यात्—हो सकता है; क्षत्र बन्धुभि:—निम्न क्षत्रिय के द्वारा ।.
अनुवाद
लौटने पर वे सोचने लगे तथा मन ही मन तर्क करने लगे कि क्या मुनि इन्द्रियों को एकाग्र करके तथा आँखें बन्द किये सचमुच समाधि में थे, अथवा वे निम्न क्षत्रिय का सत्कार करने से बचने के लिए समाधि का स्वाँग रचा रहे थे?
तात्पर्य
भगवद्भक्त होने के कारण, राजा ने अपनी इस कार्यवाही को उचित नहीं समझा, अतएव वे सोचने लगे कि क्या मुनि सचमुच समाधि में थे, अथवा वे बहाना बना रहे थे, जिससे उन्हें राजा का स्वागत न करना पड़े, क्योंकि राजा क्षत्रिय था अतएव पद में उनसे निम्न था। उत्तम जीव जब कभी कोई त्रुटि करता है, तो उसके मन में तुरन्त पश्चात्ताप होता है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर तथा श्रील जीव गोस्वामी यह नहीं मानते कि राजा का यह कार्य उनके विगत दुष्कर्मों के कारण था। यह योजना तो भगवान् ने राजा को अपने घर, भगवद्धाम में वापस बुलाने के लिए बनाई थी।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार, यह योजना भगवान् की इच्छा से बनी थी और भगवान् की इच्छा से निराशा की स्थिति उत्पन्न हुई थी। योजना यह थी कि राजा के इस तथाकथित दुष्कर्म के लिए कलि के प्रभाव से दूषित हो चुका एक अनुभव-विहीन ब्राह्मण बालक शाप देगा। इस तरह यह अच्छा ही होगा कि राजा अपने घर-बार को छोड़ सकेगा और श्रील शुकदेव गोस्वामी के साथ सम्बन्ध होने से, श्रीमद्भागवत प्रस्तुत होगा, जिसे भगवान् का ग्रंथावतार समझा जाता है। इस ग्रंथावतार से भगवान् की दिव्य लीलाओं के बारे में, विशेष रूप से व्रजभूमि की दिव्य गोपिकाओं के साथ उनकी रासलीला की अत्यन्त मनोहारी जानकारी प्राप्त होती है। भगवान् की इस विशिष्ट लीला का विशेष महत्त्व है, क्योंकि जो भी भगवान् की इस लीला को ठीक तरह से समझता है, वह निश्चय ही संसारी कामवासना से विरत हो जाता है और भगवान् की भक्तिमय सेवा के भव्य मार्ग पर प्रतिष्ठित हो जाता है। शुद्ध भक्त की संसारी निराशा उसे उच्चतर दिव्य स्थान प्रदान कराने के निमित्त होती है। अर्जुन तथा पाण्डवों को उनके चचेरे बन्धुओं से षड््यंत्र कराकर, भगवान् ने कुरुक्षेत्र युद्ध की भूमिका का निर्माण किया। यह सब भगवान् की वाणी की प्रतिनिधि भगवद्गीता का अवतार कराने के लिए था। इसी प्रकार राजा परिक्षित को विषम परिस्थिति में डालकर, भगवान् की इच्छा से श्रीमद्भागवत का अवतार कराया गया। भूख तथा प्यास से क्षुब्ध होना तो मात्र दिखावा था, क्योंकि राजा ने माता के गर्भ में रहते हुए भी बहुत सहन किया था। वे अश्वत्थामा द्वारा छोड़े गये ब्रह्मास्त्र के जाज्वल्यमान ताप से कभी विचलित नहीं हुए। राजा की यह व्यथापूर्ण स्थिति निश्चय ही अभूतपूर्व थी। महाराज परीक्षित जैसे भक्त भगवान् की कृपा से ऐसी आपदाओं को सहन करने के लिए काफी शक्तिशाली होते हैं और वे कभी विचलित नहीं होते। अतएव इस प्रसंग में सारी परिस्थिति भगवान् द्वारा नियोजित थी।
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