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श्लोक |
ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम् ।
पितरं वीक्ष्य दु:खार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ३८ ॥ |
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शब्दार्थ |
तत:—तत्पश्चात्; अभ्येत्य—प्रवेश करके; आश्रमम्—आश्रम में; बाल:—बालक; गले सर्प—गले में साँप; कलेवरम्—शरीर; पितरम्—पिता को; वीक्ष्य—देखकर; दु:ख-आर्त:—दुखित अवस्था में; मुक्त-कण्ठ:—जोर से; रुरोद—चिल्लाया; ह— भूतकाल का सूचक शब्द ।. |
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अनुवाद |
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तत्पश्चात् जब वह बालक आश्रम को लौट आया, तो उसने अपने पिता के गले में सर्प देखा और उद्विग्नता के कारण वह जोर से चिल्ला पड़ा। |
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तात्पर्य |
वह बालक प्रसन्न तो नहीं हुआ था, क्योंकि उसने बहुत बड़ी भूल की थी और वह रोकर मन को हल्का करना चाह रहा था। अतएव आश्रम में प्रवेश करके जब उसने |
अपने पिता की दशा देखी तो वह जोर से चिल्लाया, जिससे उसे राहत मिल सके। लेकिन बहुत देर हो चुकी थी। पिता ने पूरी घटना पर खेद प्रकट किया। |
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