स वा आङ्गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम् ।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम् ॥ ३९ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; वै—भी; आङ्गिरस:—अंगिरा वंश में उत्पन्न ऋषि; ब्रह्मन्—हे शौनक; श्रुत्वा—सुनकर; सुत—अपने पुत्र का; विलापनम्—दुख में रोदन; उन्मील्य—खोलकर; शनकै:—धीरे-धीरे; नेत्रे—आँखों से; दृष्ट्वा—देखकर; च—भी; अंसे—कंधे पर; मृत—मरा हुआ; उरगम्—साँप को ।.
अनुवाद
हे ब्राह्मणो, अंगिरा मुनि के वंश में उत्पन्न उस ऋषि ने अपने पुत्र का चिल्लाना सुनकर धीरे धीरे अपनी आँखें खोलीं और अपनी गर्दन के चारों ओर मरा हुआ सर्प देखा।
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