श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 18: ब्राह्मण बालक द्वारा महाराज परीक्षित को शाप  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  1.18.41 
निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं
स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत् ।
अहो बतांहो महदद्य ते कृत-
मल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृत: ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
निशम्य—सुनकर; शप्तम्—शापित; अतत्-अर्हम्—कभी भी तिरस्कृत नहीं; नर-इन्द्रम्—मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा को; स:—वह; ब्राह्मण:—ब्राह्मण ऋषि; न—नहीं; आत्म-जम्—अपने पुत्र को; अभ्यनन्दत्—बधाई दी; अहो—हाय; बत—दुखद; अंह:— पाप; महत्—बड़ा; अद्य—आज; ते—तुम्हारा; कृतम्—किया गया; अल्पीयसि—नगण्य, क्षुद्र; द्रोहे—अपराध; उरु:—बहुत बड़ा; दम:—दण्ड; धृत:—दिया गया ।.
 
अनुवाद
 
 पिता ने अपने पुत्र से सुना कि राजा को शाप दिया गया है, यद्यपि उसे इस तरह दण्डित नहीं किया जाना था, क्योंकि वह समस्त मनुष्यों में श्रेष्ठ था। ऋषि ने अपने पुत्र को शाबाशी नहीं दी, अपितु उलटे वे यह कहकर पछताने लगे, हाय! मेरे पुत्र ने कितना बड़ा पाप-कर्म कर लिया। उसने एक तुच्छ अपराध के लिए इतना भारी दण्ड दे दिया है।
 
तात्पर्य
 राजा सारे मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है। वह ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और उसे उसके किसी भी कार्य के लिए निन्दित नहीं किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, राजा कोई त्रुटि नहीं कर सकता। राजा ब्राह्मण के अपराधी बालक को फाँसी की सजा का आदेश दे सकता है, तब भी वह ब्राह्मण-हत्या का पापी नहीं बन सकता। यदि राजा कभी कुछ त्रुटि कर भी बैठे, तो भी उसकी अवमानना नहीं होनी चाहिए। कोई चिकित्सक गलत उपचार से किसी रोगी को मार सकता है, लेकिन ऐसे मारनेवालों को कभी मृत्युदंड नहीं दिया जाता। अत: महाराज परीक्षित जैसे उत्तम एवं पुण्यात्मा राजा के विषय में क्या कहा जाय। जीवन की वैदिक शैली में राजा को राजर्षि बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है, यद्यपि वह राजा के रूप में शासन कर रहा होता है। केवल राजा द्वारा चलाये जा रहे उत्तम शासन में प्रजा शान्तिपूर्वक तथा निर्भय रह सकती है। राजर्षिगण अपने राज्य की व्यवस्था इतने सुचारु रूप से तथा पवित्रता से करते थे कि प्रजा उनका वैसा ही आदर करती थी, मानो वे भगवान् हों। यही वेदों का आदेश है। राजा को नरेन्द्र या मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है। तो फिर महाराज परीक्षित जैसे राजा को किस तरह एक अनुभवहीन गर्व से फूला ब्राह्मण बालक अपमानित कर सकता था, भले ही उसे योग्य ब्राह्मण का तेज क्यों न प्राप्त हो चुका हो? चूँकि शमीक ऋषि एक अनुभवी श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, अतएव उन्होंने अपने इस अधम पुत्र के कार्यों का समर्थन नहीं किया, अपितु अपने पुत्र के किये हुए पर वे पश्चात्ताप करने लगे। सामान्य नियम के अनुसार, राजा श्राप की सीमा से परे होता है, तो फिर महाराज परीक्षित जैसे उत्तम राजा के विषय में क्या कहा जाय। राजा का अपराध अत्यन्त नगण्य था और उसे मृत्यु दण्ड देना सचमुच ही शृंगी के लिए बहुत बड़ा पाप था। इसीलिए शमीक ऋषि को पूरी घटना पर पश्चात्ताप किया।
 
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